Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 35
________________ [ ३० ] अवस्था है । यह क्रोध सत्ता में होता है, लेकिन उदय में नहीं होता है । ८. अनुपशान्त क्रोत्र - उदय - अवस्था में रहा हुआ क्रोध अनुशान्त क्रोध है । इस तरह हम देखते हैं कि क्रोध आठ प्रकार का होता है । स्थानाङ्ग सूत्र में इन आठों क्रोधों का नामोल्लेख हुआ है । ' ोध की उत्पत्ति के हेतु : : 'क्रोध' शब्द की व्युत्पत्ति 'क्रुध्' धातु के साथ 'घन्' प्रत्यय संलग्न करने पर होती है । इसका शाब्दिक अर्थ है, 'कुपित होना' । भारतीय साहित्य में क्रोध के लिए कोप, आवेश, आक्रोश, रोष आदि शब्द भी व्यवहृत हुए हैं । समवायांग सूत्र में क्रोध के दस नाम निर्दिष्ट हैं - १. क्रोध, २. कोप, ३. रोष, ४. दोष, ५ अक्षमा, ६. संज्वलन, ७. कलह, ८. चाण्डिक्य, ९. भंडन और १०. विवाद | क्रोध एक उद्वेगजनक मनोविकार है । इसके कारण मनुष्य अपना विवेक खो देता है । यह अनुचित, अन्यायपूर्ण तथा हानिकारक कार्य या बात को देख-सुनकर उत्पन्न होता है । जिसके कारण यह उग्र तथा तीक्ष्ण मनोविकार उत्पन्न होता है, व्यक्ति उसे कुछ कठोर दंड देने की इच्छा करता है अर्थात् उससे बदला लेना चाहता है । भगवद्गीता के अनुसार जो अभिलाषा पूरी नहीं होती है, वही रजोगुण के कारण बदलकर 'क्रोध' बन जाती है । साध्वी मणिप्रभाश्री क्रोध के उद्भव का कारण बताती हुई कहती हैं कि कोई भी अपेक्षा जब उपेक्षा में बदलती है, तो हृदय में क्रोध जन्म लेता है । 'स्थानांग' में क्रोध की उत्पत्ति के चार कारण बताये हैं । वे हैं - १. क्षेत्र के निमित्त से, २. वस्तु के निमित्त से, ३. शरीर के निमित्त से और ४. उपधि के निमित्त से । इसी ग्रन्थ में क्रोधोत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि अमुक व्यक्ति ने मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का अपहरण किया है, करता है और करेगा तथा उपहृत किये हैं, करता है और करेगा ऐसा होने पर क्रोध की उत्पत्ति होती है । " १. स्थानाङ्ग सूत्र, ४. ८४, ८८ ३. गीता, २.६३ ५. स्थानांग, ४.३ Jain Education International २. समवायांग, ५२. ४. शान्ति पथ, पृष्ठ ४७ ६. वही, १०-७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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