Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 13
________________ [ ८ ] ८. स्त्री-परीषह, ९. चर्या-परीषह, १०. निषद्या-परीषह, ११. शय्यापरीषह, १२. आक्रोश-परीषह, १३. वध-परीषह, १४. याचनापरीषह, १५. आयाम-परीषह, १६. रोग-परीषह, १७. तृण-स्पर्शपरीषह, १८. मल-परीषह, १९. सत्कार-पुरस्कार-परीषह, २०. प्रज्ञापरीषह, २१. अज्ञान-परीषह, २२. दर्शन-परीषह। जो साधक उपर्युक्त परीषहों के आने पर कद्ध और उद्विग्न नहीं होता; शान्ति से उन्हें सहन करता है, वह अपनी साधना में सफलता प्राप्त करता है । शास्त्रों में कहा है कि साधक को जो भी कष्ट हो, वह उसे प्रसन्नचित्त से सहन करे।' जो अपनी साधना में उद्विग्न नहीं होता, वही वीर साधक प्रशंसित होता है। यही साधक की सच्ची क्षमाशीलता है। 'जैसे को तैसा' वाली नीति घातक : तुम पर हो जिसका जो भाव । उससे करो वही बर्ताव ॥4 'जैसे को तैसा' एक नीति वचन है। कतिपय विद्वान् इस नीति को ही एक मात्र व्यावहारिक मानते हैं। हिन्दी युग प्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे उचित माना है। उनकी मान्यता है कि कपटी कुटिल व्यक्तियों के साथ कपट और कुटिलता करना ही समीचीन है। उन्होंने लिखा है कपटी कुटिल मनुष्यों से जो जग में कपट न करते हैं । वे मतिमन्द मूढ़ नर, विश्वय, पाय पराभव मरते हैं ।। उनमें कर प्रवेश फिर उनको शठ यों मार गिराते हैं। कवचहीन तनु से ज्यों पैने बाण प्राण ले जाते हैं । जबकि भगवान् महावीर 'जैसे को तैसा' इस नीति के विरोधी हैं । वे कहते हैं तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं पंडगे ति वा । वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ १. उत्तराध्ययन सूत्र, २. ३. (विस्तृत जानकारी के लिए 'उत्तराध्ययन' का द्वितीय अध्याय 'परीषह प्रविभक्ति' द्रष्टव्य है।) २. सूत्रकृतांग, १. ९. ३१. ३. आचारांग, १. २. ४. ४. मैथिलीशरणगुप्त कृत 'हिन्दू', पृष्ठ ९१. ५. द्विवेदी काव्यमाला, पृष्ठ २८१. ६. दशकालिकसूत्र, ७. ११. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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