Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ [ १९ ] क्षमाधर्माङ्गाय नमः' । क्षमा की उपलब्धि के लिए जैन लोग इसका जप करते हैं। (घ) क्षमा-व्रत-इसी प्रकार जैन धर्मावलम्बी क्षमाधर्म की प्राप्ति हेतु व्रत-तप भी करते हैं। उपवास आदि करके लोग इसकी आराधना करते हैं। भाद्र शुक्ला पञ्चमी को क्षमागुण की प्राप्ति के निमित्त विशेष आराधना की जाती है। इस प्रकार जैनधर्म में क्षमा की साधना के अनेक रूप हैं । जैन धर्मानुयायी पर्व, पूजा, मन्त्र, व्रत आदि के माध्यम से इसकी साधना करते हैं। जैन तीर्थंकर महावीर : परम क्षमामूर्ति तीर्थंकर महावीर परम क्षमाशील थे । 'खंतिसूरा अरिहंता' की उक्ति के अनुसार वे क्षमावीर थे। उन्होंने क्षमाधर्म का उत्कृष्ट रूप से पालन किया था। उनके प्रवचन भी क्षमाधर्म से परिपूर्ण होते थे। तीर्थंकर महावीर की क्षमाशीलता सर्वाधिक उल्लेखनीय है। महावीर का जीवन क्षमा का आदर्श था। उनकी क्षमा विलक्षण थी। उनके साधनाकाल में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो उनकी क्षमाशीलता को प्रतिबिम्बित करते हैं। ___ आचारांग सूत्र में भगवान महावीर की विहारचर्या के विषय का निरूपण करते हुए उनकी आदर्श क्षमा का दिग्दर्शन कराया गया है। उसमें लिखा है, "भगवान् के शरीर पर भ्रमर बैठकर रसपान करते थे। रस प्राप्त न होने पर क्रुद्ध होकर भगवान के शरीर पर डंक भी लगाते थे । वे ध्यान में रहते तब कभी सांप, और कभी नेवला, कभी कुते काट खाते, कभी चींटियाँ डांस, मच्छर और मक्खियाँ सताती। कभी उन्हें चोर और पारदारिक सताते तो कभी हाथ में भाले लिए हुए ग्राम-रक्षक । भगवान् को कभी स्त्रियों और कभी पुरुषों के द्वारा कृत-काम सम्बन्धी उपसर्ग सहने होते। बहुत से लोग उनके साथ दुर्व्यवहार करते, परन्तु भगवान् के मन में प्रतिकार का कोई संकल्प भी नहीं उठता । लाढ़-प्रदेश में विहार करते हुए तो उनकी सहनशीलता चरम सीमा पर थी। अनेक लोग श्रमण महावीर को कुत्ते काट खाएँ, इस उद्देश्य से 'छू-छू' कर कुत्तो को भगवान् के पीछे लगाते। कुछ लोग दण्ड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्रों से, तो कुछ लोग चपटा, मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान् पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54