Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 17
________________ [ १२ ] दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है। क्षमा शत्रुता की विनाशिका : अंग्रेजी कहावत है, 'to err is human to forgive is divine.' अर्थात गलती करना इन्सान का काम है; उसे क्षमा करना परमात्मा का काम । यथार्थतः यह सही है कि गलती करना मनुष्य का स्वभाव है। किन्तु दूसरों की गलतियों को क्षमा करना दैवीय गुण है। यदि गलतियों (अपराधों) को क्षमा नहीं किया जावेगा और अपराधी को दण्डित करने की ही भावना दृढ़तर होती जावेगी तो इससे एक दूसरे के प्रति शत्रुता की गांठ मजबूत होती जावेगी। क्षमा दण्ड से अधिक पुरुषोचित एवं वीरोचित है। संसार में ऐसी गलतियाँ एवं अपराध कम हैं, जिन्हें हम चाहें और क्षमा न कर सकें। दूसरों की भूलों को विस्मरण कर देना भी क्षमा करने जितना ही श्रेयस्कर है। अपनी भूलों, गलतियों या अपराधों को कभी भी क्षमा नहीं करना चाहिए। ऐसी क्षमा, क्षमा होते हुए भी विघातक है। तिरुवल्लुवर का कथन है कि जो लोग बुराई का बदला लेते हैं, बुद्धिमान उनका सम्मान नहीं करते, किन्तु जो अपने शत्रुओं को क्षमा कर देते हैं, वे स्वर्ण के समान बहमूल्य समझे जाते हैं। वास्तव में क्षमा करने का आनन्द तो उसी समय आता है, जब मनुष्य अपने शत्रु को क्षमा करता है, शत्रुता को समाप्त करने के लिए क्षमाशस्त्र का प्रयोग करता है। यदि मनुष्य अपने शत्रु के लिए अपनी क्रोध रूपी भट्टी को गरम करेगा तो वह भट्टी उसको स्वयं भूनकर राख कर देगी। सत्यतः शत्रु से शत्रुता करना शत्रुता को दुना करना है। शत्रु शत्रुता करता है और फिर दूसरों की शत्रुता का भागी होता है । इस तरह से शत्रुता आगे बढ़ती जाती है, जैसे आग से आग। क्षमा एक ऐसा माध्यम है जो शत्रु से मैत्री के टूटे तारों को जोड़ देती है। अपनी शीतलता से दसरे की क्रोध रूपी आग को शांत कर देती है । शत्रुता की समाप्ति के लिए क्षमा से बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। सच्चे मावन्त का यह धर्म होता है कि वह अपने १. उद्धृत्,-विश्वसूक्तिकोश, भाग २, पृष्ठ ११८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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