Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 20
________________ [ १५ ] कहते हैं, जो देव, मानव तथा तिर्यञ्च पशुओं के द्वारा घोर उपसर्ग पहुँचाने पर भी क्रोध से तप्त नहीं होता, उसे ही क्षमा-धर्म होता है।' जो क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाह्य कारणों के मिलने पर जरा-सा भी क्रोध नहीं करता है, वही क्षमा धर्म का आराधक होता है। ___ जयवल्लभ ने क्षमा को बड़े से बड़े तप से भी श्रेष्ठ माना है।' कुरलकाव्यकार के अनुसार उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निस्सन्देह महान हैं, पर उनका स्थान उन लोगों के पश्चात् ही है, जो अपनी निन्दा-आलोचना करने वालों को क्षमा कर देते हैं । उनका उपदेश है कि दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुँचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो और यदि तुम उसे भूल सको तो यह और भी अच्छा है।' इसी प्रकार पं० आशाधर का कथन है कि अपना अपराध करने वालों का शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति क्षमा धारण करता है, उस क्षमा रूपी अमृत का सेवन करने वाले व्यक्ति को सज्जन पुरुष पापों को नष्ट कर देने वाला समझते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, जो मुनि क्रोध के अभाव रूप क्षमा से मण्डित है, वह मुनि समस्त पापकर्म का अवश्यमेव क्षय करता है।' तिरुक्कुरलकार के अनुसार क्षमा आध्यात्मिक, नैतिक एवं सामाजिक तीनों ही क्षेत्र में उपयोगी है। उनका मत है कि संसार छोड़ने वाले महापुरुषों से भी बढ़कर सन्त वह है, जो अपनी निन्दा करने को हंसते-मुसकराते सहन कर लेता है। तिरुक्कुरल में लिखा है कि दूसरे लोग तुम्हें यदि नुकसान पहुंचाये तो तुम उन्हें क्षमा कर दो और यदि तुम उसे जड़मूल से भला सको तो यह और भी श्रेयस्कर है। धरती उन लोगों को भी शरण देती है, जो उसे बेरहमी से खोदते हैं । इसी तरह तुम भी उन १. कार्तिकेयानप्रेक्षा, ३६४. २. उद्धृत-खामेमि सव्वे जीवे, पृष्ठ २. ३. वउजालग्ग, ८. ५. ४. कुलकाव्य, १६. २. ५. कुरलकाव्य, १६. १०. ६. अनगार धर्मामृत, ६. ५. ७. भवपाहुड़, १०८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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