Book Title: Kshama ke Swar Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta View full book textPage 9
________________ [ ४ ] होने के बाद विवेक आदि से उसे दबाकर अपराध को सह लेना क्षमा है। जबकि प्रतिकार की भावना का उत्पन्न न होना अक्रोध है। क्षमा में व्यक्ति सहनशील होता है जब कि अक्रोध में व्यक्ति क्रोध से ही विहीन होता है। अक्रोध में व्यक्ति परमहंस की स्थिति प्राप्त कर लेता है, जबकि क्षमा उस स्थिति तक पहुँचने का सोपान है। इस तरह सर्वप्रथम उपशम, उपशम से क्षमा और क्षमा से अक्रोध की यात्रा समत्वपथ की क्रमिक यात्रा है। यद्यपि 'हिन्दी शब्दसागर' में क्षमा को तितिक्षा के अन्तर्गत माना है ? लेकिन हमें इन दोनों में अन्तर नहीं लगता है। क्योंकि दोनों का अर्थ एक ही है, शब्द-पर्याय भले अलग-अलग हो । क्षमा का स्वरूप और महत्त्व : क्षमा की परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि बाह्ये चाध्यात्मिके चैव दुःखे चोत्पादिते क्वचित् । न कुप्यति न वा हन्ति, सा क्षमा परिकीर्तिता ।। अर्थात् बाह्य और आध्यात्मिक (आन्तरिक) दुःख के उत्पन्न होने पर जो न कुपित हो और न किसी को कष्ट दे, वह क्षमा है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार क्रोध के निमित्त मिलने पर मन में कलुष न होना या शुभ परिणामों से क्रोध आदि की निवत्ति क्षमा है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने भी लगभग यही बात कही है कि क्रोध-उत्पत्ति के बाह्य कारणों के प्राप्त होने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। क्षमा चित्त की एक प्रकार की सद्वृत्ति होती है। इसमें दूसरों द्वारा पहुँचाये हुए कष्ट, आघात, आक्षेप, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि को आक्रोशरहित होकर धैर्यपूर्वक सहना होता है । क्षमा वस्तुतः चैतसिक एवं मानवीय गुण है। क्षमा वह औषधि है, जो चित्त की आकुलता रूपी व्याधि का उपशमन कर देती है। दूसरे शब्दों में, क्षमा वह गंगा है, जो कलह-पङ्क को समाप्त कर देती है । क्षमा रूपी जल के सिञ्चन से निराकुलता का कल्पवृक्ष लहलहाता है, जिसके शान्ति रूपी मधुर फल का आस्वादन कर मानव-समाज आनन्द से अभिभूत हो सकता है। क्षमा का सागर अगाध है । उसको क्रोध की १. हिन्दी शब्दसागर, भाग ३ पृष्ठ. १०९७. २. तत्वार्थवार्तिक, पृष्ठ ५२३. ३. द्वादशानुप्रेक्षा, श्लोक ७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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