Book Title: Karmprakruti Mool
Author(s): Vanchayamashreeji
Publisher: Girdharlal Kevaldas Dalodwala

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Page 45
________________ कर्म प्रकृति सव्वत्थायावुज्जोय - मणुयगइ पंचगाण आऊणं । समयाहिगालिगा, सेसमत्ति सेसाण जोगंता ॥ ५४ खवगस्संतरकरणे, अकए घाईण सुहुमकम्मुवरिं । केवलिणो णंतगुणं, असन्निओसेस असुभाणं ॥ ५५ सम्मद्दिट्ठी न हणइ, सुभाणुभागे असम्मदिट्टी वि । सम्मत्तमीसगाणं, उक्कोसं वज्जिया खवणं ॥ ५६ ॥ अंतरकरणा उवरिं, जहन्न ठिइसकमो उ जस्स जहिं घाईणं नियगचरम - रसखंडे दिट्टिमोहदुगे ॥ ५७ ॥ आऊण जहन्नठिई, बंधिय जावत्थि संकमो ताव । उव्वलणतित्थसंजोयणाय, पढमा लियं गंतुं ॥ ५८ ॥ सेसाण सुहुम हय संत - कम्मिगो तस्स हेठओ जाव। ias तावं एगिंदिओ व, गिंदिओ वावि ॥५९॥ जं दलियमन्नपगई, निज्जइ सो संकमो पएसस्स । उव्वलणो विज्झाओ, अहापवत्तो गुणो सव्वो ॥ ६० आहारतणू भिन्नमुहुत्ता, अविरइगओ पउव्वलए । जा अविरतो त्ति उव्वलइ, पल्लभागे असंखतमे ॥ ६१ अंतोमुहुत्तमद्धं, पल्लासंखिज्जमित्त ठिइखंडं । उक्करs पुणो वि तहा, ऊणूणमसंखगुणहं जा ॥ ६२ ३४

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