Book Title: Jivajivabhigamsutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 578
________________ जीवाभिगमसूत्रे छाया-नपुंसकस्य खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्तरं भवति ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कण सागरोपमशतपृथक्त्व सातिरेकम् । नेरयिकनपुसकस्य खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्नं भवति ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहर्तम्, उत्कणतरुकालः । रत्नप्रभापृथिवीनरयिकनपुसकस्थजघन्येनान्तर्मुहर्तम् उत्कर्षणतरुकालः एवं सर्वेषां यावदधः सप्तमी । तिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्येनान्तर्मुहृतम्, उत्कर्पण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् । एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्येनान्तमुहर्तम् उत्कर्पण । सागरोपमसहस्रसंख्येयव. भ्यधिके । पृथिव्यप्तेजोवायूनां जघन्येनान्तर्मुहर्तम्, उत्कर्पण वनस्पतिकालः । वनस्पतिकायिकानां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कणासंख्येयं कालं यावदसंख्येया लोकाः शेपाणां डीन्द्रि यादिनां यावत् खेचराणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कण वनस्पतिकालः । मनुप्यनपुंसकस्य क्षेत्र प्रतीत्य जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कपेण वनस्पतिकालः, धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्येनकं समयमुत्कLणानन्तं कालं यावदपाद्धेपुरुलंपरावत्तं देशोनम् । एवं कर्मभूमिकस्यापि भरतैरवतस्य पूर्वविदेहापरविदेहकस्थापि । अकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य खलु भदन्त ! कियन्त कालमन्तरं भवति ? गौतम ! जन्मप्रतीत्य जघन्येनान्तमुहर्त्तम्, उत्कणवनस्पतिकालः । संहरणं प्रतीत्य 'जघन्येनान्तमुहूर्तसुत्कपेण वनस्पतिकालः, एवं यावदन्तरद्वीपकः ॥ सू०१६ ॥ "णपुंसगस्स णं भते ! केवइयं कालं अंतरं होइ" इत्यादि । टीकार्थ - हे भदन्त ! नपुंसक अवस्थाको प्राप्त जीव नपुंसक अवस्था से छूटकर फिर कितने काल बाद नपुंसकवेद वाला होता है ? उत्तर में प्रभु कहते है-"गौयमा ! जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोचमसयपुहुत्तं सातिरंग" हे गौतम । नपुंसक जीव को नपुसक वेद से छूटने पर पुनः नपुसक होने में अन्तर कम से कम एक अन्तमुहूर्त का है और अधिक से अधिक कुछ अधिक सागरोपम शत पृथक्त्व का है । क्योकि पुरुप नपुंसकआदिका काल इतना ही सभवित है । इस विषय में इस प्रकार कहा है "पुरिसणपुंसा संचिटणंतरे सागर पुद्दुत्त" इसका अर्थ ऐसा है-निरन्तर रूप से रहने का नाम सचिट्ठणा है इसका दूसरा नाम कायस्थिति भी है। पुरुष और नपुंसक की क्रम से अर्थात् पुरुष की संचिगुणा निरन्तर से एक स्थान में रहना एवं नपुंसक का अन्तर उत्कृष्ट से सागरोपम शत पृथक्त्व का होता है।। - "णपुंसगस्सण भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई" त्यात ટીકાથે_હે ભગવન નપુંસક થયેલે જીવ નપુંસક અવસ્થાથી છૂટીને તે પછી કેટલાકાળ પછી નપુસક વેદ વાળ થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે "गोदमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सागरोवमसमपुहुत्त सातिरेगः' गीतम! નપુંસક જીવને નપુંસક વેદથી છૂટયા પછી ફરીથી પાછા ન સક થવામાં કમથી કમ એક

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