Book Title: Jivajivabhigamsutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 581
________________ प्रमेयद्योतिकाटीका प्र०२ नपुंसकस्वरूपनिरूपणम् ५५९ इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 'जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् सामान्यतोनारकनपुंसकत्यान्तरं भवति, सप्तमनरकपृथिवीतः उद्धृत्य तन्दुलमत्स्यादि भवेदन्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरपि सप्तमनरकपृथिव्या गमनश्रवणादिति उक्कोसेणं तरुकालो' उत्कर्षेण तरुकालो वनस्पतिकाल इत्यर्थः नरकभवादुद्धत्य पर-परया निगोदेषु गतस्य तत्रानन्तरं कालं यावदवस्थानादिति 'रयणप्पमा पुडवीनेरइयणपुंसगस्स विशेषचिन्तायां रत्नप्रभापृथिवीनरयिक नपुंसकस्य कियन्तं कालमन्तरं अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से सख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का है. इसका कारण यह है कि एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसक जीव मरकर त्रस कायो में उत्पन्न होजावे, वहां उसके फिर एकेन्द्रि. योनिय की प्राप्ति में व्यवधान करने वाला त्रसकाय का स्थिति काल उत्कर्ष से भी संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का ही होता है। यह एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसक का अन्तर 'कथन सामान्य से है-विशेष से अन्तर कथन इस प्रकार है-"पुढवी आउ तेउ वाउणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो" पृथिवी कायिकनपुंसक का अप्कायिक नपुंसक का तैजस कायिक नपुंसक का और वोयुकायिक का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से वनस्पति काल प्रमाण का है. “वणस्सइ काइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं" वनस्पति कायिक नपुंसक का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और “उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं जाव असंखज्जलोया" उत्कृष्ट से असख्यात काल का यावत् असंख्यात लोक का है. यह असख्यातकाल कालकी अपेक्षा असख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण होता है. उत्सर्पिणी अवसर्पिणी का असख्यातपना इस प्रकार से जानना चाहिये जैसे असख्यातलोकाकाश के प्रदेशों में से प्रति-समय- एक एक प्रदेश का अपहार करने पर जब समस्त प्रदेशो के समाप्त होने में जितनी उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अवसर्पिणियाँ व्यतीत हों उतनी उत्सर्पिणी अवसपिणिया मुहुत्तं साइरेग" तिययानि नसानु मत२ धन्यथा ये मतभुइतनु छ. मन -ઉત્કૃષ્ટથી સાતિરેક એટલે કે કંઈક વધારે અંતર કહ્યું છે, તે કેટલાક નપુંસક ભવાને લઈને સમજવું જોઈએ, કેમકે એટલા કાળ પછી નપુ સક નામ કર્મના ઉદયને અભાવ થઈ જવા थी श्री भाव मथ। पु३५ मा ने प्रात 25 तय छे. “एगिदय तिरिकख जोणिय णपुसगस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दोसागरोवमसहस्साइ संखेजवासमभहियाई" એક ઈદ્રિય વાળા તિર્યગ નપુસકેનું અંતર જઘન્યથી એક અતિમુહૂર્તનુ હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી સ ગ્યાત વર્ષ અધિક બે હજાર સાગરોપમનું છે. તેનું કારણ એ છે કે–એક ઈદ્રિય વાળી તિર્યંગ્યનિક નપુ સક જીવ મરીને ત્રસકાય પણામાં ઉત્પન્ન થઈ જાય ત્યાં પાછા તેને એક ઈદ્રિય જીવોની નિ પ્રાપ્ત કરવામાં વ્યવધાન કરવા વાળા ત્રસ કાયને સ્થિતિ કાળ ઉત્કૃષ્ટથી પણ સંખ્યાત વર્ષ અધિક બે હજાર સાગરોપમને જ હોય છે. આ એક ઈદ્રિય વાળા તિર્યÀનિક નપુસકેનું અંતર સામાન્યથી કહ્યું છે. વિશેષ પ્રકારથી અંતરનું કથન આ प्रमाणे छे.

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