Book Title: Jivajivabhigamsutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 580
________________ ५५८ जीवाभिगमनने पुरिसणपुंसगा मंचिट्ठणं तरे गागर पुहनं' इनि नचनान पुरपनघुमका. संचिटणान्तरं सागर पृथक्त्वम् पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात सागरोपमानपृथक्वमिति मुरुपग्य नपुग्नकस्य च यथाक्रममिति पुरुपस्य सचिट्ठणा सातत्येनावम्यान नपुंसक या न च कर्षनः सागरोपमशतपृथक्त्वमिति ‘णेश्य णपुग्नगरमण भने' नायिकनपुन कम्य बन्द मान्न । 'फेवयं कालं अतरं होद' कियन्त कालमन्तर मनति नारकनपुसकन्यति ग्रन भगाना --गायगा' रत्नप्रभापृथिवी के नरयिकनपुंसक की स्थिति कितन काल को होनी हमर उजर में भगवान कहते हे-हे गौतम । 'जहन्नेण अंतोमहत्तं जघन्य स अन्तर्महर्न की स्थिति होती है और “उकोसेणं तरुकालो" उत्कर्ष से नाकाल अर्थान वनस्पति काल की होती है अर्थात अनन्त काल की स्थिति होती है । "एवं सव्वेसि जाब अहे सलमा” इसी प्रकार कार्कग आगा के नैरयिक नपुंसक से लेकर सातवीं पृथिवी के नैरयिक नपुंसकों का भी अन्तर है । अर्थात जघन्य से अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट में अन्नर तरकाल प्रमाण अनन्त काल का है "तिरिक्खजोणिय णपुसगम्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं सागरोयमययपद्त्तं नाटरंग' तिर्यग्योनिकनपुंसक का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहर्त का है और उकष्ट से अन्तर मातिरेक कुछ अधिक सागरोपगशत पृथक्त्व का है। यहीं सातिरक-कुछ अधिक जो कहा है, वह कितने नपुंसक मवो को लेकर समझना चाहिये क्योकि उनने काल के बाद नपुंसक नाम कर्म के उदय का अभाव हो जान से स्त्री भाव अथवा पुरूप भाव को प्राप्त हो जाता है। "एगिदियतिरिक्सनाणिय णपुंसगम्स जहन्नेणं अंतोमुलुत्त उक्कोसेण दो सागरोवमस्साइ संखेज्जवासममहियाई, एकन्द्रियतिर्यगनपुंसक का પૃથ્વીના નિરયિક નપુસક થઈ જાય છે. તથા વનસ્પતિ કાળ પ્રમાણે અન તકાળનું ઉત્કૃષ્ટ અંતર અહિયા કહ્યું છે. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે-નૈરયિક નપુંસક નરક ભવથી નીકળીને પરંમપરા થી નિગોદ વિગેરેના માં આવીને અનંતકાળ સુધી ત્યાં રહે છે. અને તે પછી તે ત્યાથી મરીને ફરીથી નિરાચિક નપુંસક બની જાય છે. આ અંતર કથન સામાન્યપણુથી નરયિક નપુંसहनु ४डर छ, रयणापभा पुढवीनेरहय-नपुंसगस्य" विशेष प्रा२ना ४यनमा २न प्रमा પૃથ્વીના નૈરયિક નપુંસકેની સ્થિતિ કેટલાકળની હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ભગવાન छ ४-3 गौतम ! "जहण्णेण तोमुहत्त" धन्यथा गतहतं नी स्थिति डाय छे. भने 'उकोसेणं तरुकालो" ४८था त३१ अर्थात् वनपति अपनी उय छ, मेरो मनतनी स्थिति डाय छे. "पव सव्वेसिजाव अहेसत्तमा" मे प्रमाणे ४१ प्रमाना નરયિક નપુંસકથી લઈને સાતમી પૃથ્વીને નરયિક નપુંસકેનું અંતર પણ હોય છે. અર્થાત જઘન્યથી એક મુહૂર્તનું અંતર હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તરૂકાળ પ્રમાણ એટલે કે અનત ४७नु भत२ छ. "तिरक्खजोणिय णपुंगस्स जहणेणं अतोमुहत्त उक्कोसेण सागरोवमसय

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