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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क करते हुए कहता है कि कभी चोर धन-वैभव का अपहरण कर लेते हैं, कभी राजा उसको छीन लेता है और कभी वह घर-दहन में जला दिया जाता है (३७)। धन-वैभव का नाश कुछ मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रेरणा देकर उनको आत्म-जागृति की स्थिति में लाने के लिए समर्थ हो सकता है।
इस तरह से जब मूर्छित मनुष्य को संसार की निस्सारता का भान होने लगता है (६१), तो उसकी मूर्छा की सघनता धीरे-धीरे कम होती जाती है और वह अध्यात्म मार्ग की ओर चल पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि अध्यात्म में प्रगति किया हआ व्यक्ति मिल जाए तो भी मूर्च्छित मनुष्य जागृत स्थिति में छलांग लगा सकता है (९३)। इस तरह से बुढ़ापा, मृत्यु, धन-वैभव का नाश, संसार की निस्सारता और जागृत मनुष्य के दर्शन- ये सभी मूर्च्छित मनुष्य को आध्यात्मिक प्रेरणा देकर उसमें स्व-अस्तित्व का बोध पैदा कर सकते हैं। आन्तरिक रूपान्तरण और साधना के सूत्र
__ आत्म-जागृति अथवा स्व-अस्तित्व के बोध के पश्चात् आचारांग मनुष्य को चारित्रात्मक आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को बतलाते हुए साधना के ऐसे सारभूत सूत्रों को बतलाता है जिससे उसकी साधना पूर्णता को प्राप्त हो सके। कहा है कि हे मनुष्य! तू ही तेरा मित्र है (६६), तू अपने मन को रोक कर जी (६१)। जो सुन्दर चित्तवाला है, वह व्याकुलता में नहीं फंसता है (६८)। तू मानसिक विषमता (राग-द्वेष) के साथ ही युद्ध कर, तेरे लिए बाहरी व्यक्तियों से युद्ध करने से क्या लाभ (९९)? बंध (अशांति)
और मोक्ष (शांति) तेरे अपने मन में ही हैं (९७) । धर्म न गांव में होता है और न जंगल में, वह तो एक प्रकार का आन्तरिक रूपान्तरण है (९६)। कहा गया है कि जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही ऐसा ज्ञानी है, जिसके द्वारा अध्यात्म पथ जाना गया है (४६)।
आन्तरिक रूपान्तरण के महत्व को समझाने के बाद आचारांग ने हमें साधना की दिशाएँ बताई हैं। ये दिशाएँ ही साधना के सूत्र हैं। १. अज्ञानी मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्क उसमें आशाओं और इच्छाओं को जन्म देता है। मनुष्यों से वह अपनी आशाओं की पूर्ति चाहने लगता है और वस्तुओं की प्राप्ति के द्वारा वह इच्छाओं की तृप्ति चाहता है। इस तरह से मनुष्य आशाओं और इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। ये ही उसके मानसिक तनाव, अशान्ति और दु:ख के कारण होते हैं (३९)। इसलिए आचारांग का कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे (३९)। २. जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता है, जिसके फलस्वरूप उसके कर्म-बंधन नहीं हटते हैं और उसके विभाव संयोग
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