Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 460
________________ आवश्यक सूत्र 44 तीन योग से त्याग किया जाता है। इसमें साधक पूर्ण रूप से अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का मन, वचन और शरीर से पूर्णतया पालन करता है। सामायिक के मुख्य दो भेद बताये हैं- १. द्रव्य सामायिक २. भाव सामायिक। सामायिक ग्रहण करने के पूर्व कुछ विधि विधान किये जाते हैं, जैसे- आसन, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, धार्मिक उपकरण आदि एक स्थान पर रखे जाते हैं। वे स्वच्छ और सादगीपूर्ण हों। भाव सामायिक वह है जिसमें साधकं यह चिन्तन करता है कि मैं अजर, अमर एवं चैतन्य स्वरूप हूँ। वैभाविक भावों से मेरा कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है। मेरा स्वभाव ज्ञानमय, दर्शनमय है। मेरा स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। यह साधना जीवन को सजाने व संवारने की विधि है। जिससे इह लोक व परलोक दोनों ही सार्थक हो जायेंगे। 2. चतुर्विशतिस्तव यह भक्तिभाव का परिचायक आवश्यक है। इसकी साधना में व्यक्ति आनंद विभोर हुए बिना नहीं रह सकता। तीर्थकर भगवान त्याग और वैराग्य की दृष्टि से, संयम-साधना की दृष्टि से महान् हैं। उनके गुणों का उत्कीर्तन करने से साधक के अन्तर्हदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। उसके सम्मुख त्याग-वैराग्य की ज्वलन्त प्रतिकृति आती है, जिससे उसका अहंकार स्वत: लुप्त हो जाता है। आलोचना के क्षेत्र में पहुँचने से पूर्व क्षेत्र शुद्धि होना आवश्यक है। साधक समभाव में स्थिर बने, फिर गुणाधिक महापुरुषों की स्तुति करे। महापुरुषों का गुण कीर्तन प्रत्येक साधक के लिये प्रेरणा का स्रोत होता है। उनकी शरण में जाने से उसे प्रेरणा मिलेगी और आध्यात्मिक जीवन की कला को सीख लेगा। इस विषय पर गणधर गौतम ने भगवान से प्रश्न कियाप्रश्न- चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ? उत्तर- चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ। भगवान महावीर ने उपर्युक्त वाक्य से स्पष्ट कर दिया कि इससे दर्शन मोहनीय नष्ट होकर ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। इसलिये आवश्यक सूत्र में चतुर्विंशतिस्तव का अत्यधिक महत्त्व है। 3. वन्दना आवश्यक सूत्र का तीसरा अध्ययन वन्दना है। आलोचना क्षेत्र में प्रवेश करते समय गुरुभक्ति एवं नम्रता का होना आवश्यक है। देव के बाद गुरु का क्रम आता है। तीर्थकरों के गुणों का गुणगान करने के बाद साधक गुरुदेव का स्तवन और अभिवादन करता है। वह वन्दना द्वारा गुरु के प्रति भक्ति व बहुमान प्रकट करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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