Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 519
________________ 1504 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक | जिसको कोई असाध्य रोग हो, मुनिधर्म को हानि पहुँचाने वाली वृद्धावस्था हो, या देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत उपसर्ग हो, अथवा चारित्र का विनाश करने वाले शत्रु या मित्र हों, दुर्भिक्ष हो, या भयानक वन में भटक गया हो. या आँख से कम दिखाई देता हो, कान से कम सुनाई देता हो, पैरों में चलने-फिरने की शक्ति न रही हो, इस प्रकार के अपरिहार्य कारण उपस्थित होने पर विरत अथवा अविरत भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होता है।।७०-७३।। - जिसका मुनिधर्म चिरकाल तक निर्दोश रूप से पालित हो सकता है, अथवा समाधिमरण करने वाले निर्यापक सुलभ हैं या दुर्भिक्ष का भय नहीं है, वह सामने भय के न रहने पर भक्त प्रत्याख्यान के योग्य नहीं है। यदि ऐसी अवस्था में भी कोई मरना चाहता है तो वह मुनिधर्म से विरक्त हो गया है, ऐसा मानना चाहिए।।७४-७५ ।। इसके अनन्तर अचेलता, केशलोच, निर्ममत्व आदि औत्सर्गिक लिंग का कथन एवं उसके लाभ बताये हैं। विजयोदया में इन सबका वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। इस प्रकार विचार कर यदि उसकी आयु अल्प रहती है तो वह अपनी शक्ति को न छिपा कर भक्त प्रत्याख्यान का निश्चय करता है।।१५८।। तथा संयम के साधनमात्र परिग्रह रखकर शेष का त्याग कर देता है।।१६४।। तथा पाँच प्रकार की संक्लेश भावना नहीं करता। इन पाँचों भावनाओं का स्वरूप ग्रंथकार ने स्वयं कहा है।।१८२-१८६ ।। __ आगे सल्लेखना के दो भेद कहे हैं बाह्य और आभ्यन्तर। शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है और कषायों का कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है। बाह्य सल्लेखना के लिए छह प्रकार के बाह्य तप का कथन किया है। विविक्तशय्यासन तप का कथन करते हुए गाथा २३२ में उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित वसतिका में निवास कहा है। टीकाकार ने अपनी टीका में इन दोषों का कथन किया है। ये सर्वदोष मूलाचार में भी कहे हैं। आगे बाह्य तप के लाभ बतलाये हैं। गाथा २५१ में विविध भिक्षु प्रतिमाओं का निर्देश है। टीकाकार अपराजितसूरि ने तो उनका कथन नहीं किया, किन्तु आशाधर जी ने किया है। उनकी संख्या बारह कही है। मूलाचार में इनका कथन नहीं है। ___ इस भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का है। चार वर्ष तप अनेक प्रकार के कायक्लेश करता है। फिर दूध आदि रसों को त्यागकर चार वर्ष बिताता है। फिर आचाम्ल और निर्विकृति का सेवन करते हुए दो वर्ष बिताता है, एक वर्ष केवल आचाम्ल सेवन करके बिताता है। शेष रहे एक वर्ष में से छह मास मध्यम तपपूर्वक और शेष छह मास उत्कृष्ट तपपूर्वक बिताता है। (२५४-२५६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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