Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 526
________________ आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी कृतियाँ | अध्यात्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त ‘रयणसार' नामक ग्रन्थ भी कुन्दकुन्द रचित माना जाता है, किन्तु ए.एन. उपाध्ये इस ग्रन्थ को गाथाविभेद, विचार-पुनरावृत्ति, अपभ्रंशपद्यों की उपलब्धि एवं गण-गच्छादि के उल्लेख मिलने से कुन्दकुन्द कृत होने में आशंका प्रकट करते हैं। प्रवचनसार-प्रवचनसार के प्रारम्भ में ही कुन्दकुन्दाचार्य ने वीतरागचारित्र के लिए अपनी तीव्र आकांक्षा व्यक्त की है। प्रवचनसार में तीन श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन है। इस अधिकार में जीव का ज्ञानानन्द स्वभाव विस्तृत रूप से समझाया गया है। इसमें केवलज्ञान के प्रति तीव्र आकांक्षा प्रकट की गई है। उनके मत में जो केवल नाम का ज्ञान है वह सुख है, परिणाम भी वही है उसे खेद नहीं कहा है, क्योंकि घातिकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं। केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बताते हुए वे कहते हैं- केवलज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है और दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुका है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है अत: केवलज्ञान सुखस्वरूप है। इसके साथ ही कुन्दकुन्दाचार्य ने मुमुक्षुओं को अतीन्द्रियज्ञान एवं सुख की रुचि तथा श्रद्धा कराई है तथा अन्तिम गाथाओं में मोह-राग-द्वेष को निर्मूल करने हेतु जिनोक्त यथार्थ उपाय का भी संकेत किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन है। जीव के स्वसमय एवं परसमय का निरूपण करते हुए षड् द्रव्य का विवेचन इस श्रुतस्कन्ध का विषय है। इस अधिकार में आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव द्वारा पर से भेद विज्ञान का कथन किया है। बन्ध मार्ग हो या मोक्ष-मार्ग जीव अकेला ही कर्ता, कर्मकरण एवं कर्मफल बनता है। उसका पर के साथ कोई भी संबंध नहीं है। जगत् का प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। हम सत् कहें या द्रव्य, या उत्पाद व्यय ध्रौव्य कहें या गुणपर्याय द्रव्य- सब एक ही हैं। इस अधिकार में कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्य-सामान्य का लक्षण करते हुए द्रव्य-विशेष का असाधारण वर्णन एवं अपर द्रव्य से उसके भेद का वर्णन किया है। शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल, एकाग्र संचेतन लक्षण ध्यान आदि का प्रतिपादन इतना प्रौढ़, मर्मस्पर्शी एवं चमत्कारगुणयुक्त है कि उच्चकोटि के मुमुक्षु को आत्मलब्धि कराता है। यदि कोई स्वरूपलब्धि न भी कर पाए तो भी श्रुतज्ञान की महिमा उसके हृदय में दृढ़ता से स्थापित हो जाती है। तीसरे श्रुतस्कन्ध का नाम चरणानुयोग सूचक चूलिका है। इसमें शुभोपयोगी मुनि की बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं की सहजता दिखाई गई है। दीक्षा-विधि, यथाजातरूपत्व, अन्तरंग-बहिरंग छेद, युक्ताहार-विहार, मुनि का आचरण आदि अनेक विषय युक्तियुक्त तरीके से बताए गए हैं। आत्मद्रव्य को प्रधान लक्ष्य बनाकर आचरण की अंतरंग एवं बहिरंग शुद्धता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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