Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 493
________________ 1478HERAI जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाड़क जो मानविजय द्वारा संशोधित होकर सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार कोश, सूरत से १९६५ में प्रकाशित की गई। तत्पश्चात् मलयगिरि द्वारा रचित आवश्यक नियुक्ति टीका तीन भागों में प्रकाशित हुई। माणिक्यशेखर सूरि ने आवश्यक नियुक्ति दीपिका लिखी(तीन भागों में प्रकाशित)। और भी अनेक अवचूर्णियां इस नियुक्ति पर लिखी गई। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित विशेषावश्यक-भाष्य एक स्वतन्त्र ग्रंथ है, फिर भी इसे आवश्यकनियुक्ति का भाष्य कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस नियुक्ति पर विपुल साहित्य की रचना की गई। दशवैकालिकनियुक्ति- दशवैकालिक पर भद्रबाहु ने ३७१ गाथाओं की नियुक्ति लिखी है। नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं मिश्रित हो गई हैं। दशवैकालिक सूत्र में प्रतिपादित द्रुमपुष्पिका आदि सभी दस अध्ययनों पर नियुक्ति की रचना की गई है। इसमें अनेक लौकिक और धार्मिक कथानकों तथा सूक्तियों द्वारा सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण दिया गया है। हिंगुशिव, गंधविका, सुभद्रा, मृगावती, नलदाम और गोविन्दवाचक आदि की अनेक कथाएं यहां वर्णित हैं। इन कथाओं का प्रायः नामोल्लेख ही नियुक्ति-गाथाओं में उपलब्ध होता है, इन्हें विस्तार से समझने के लिए चूर्णि अथवा टीका की शरण लेना आवश्यक है। ऋषिभाषितनियुक्ति- भद्रबाहु द्वारा रचित "ऋषिभाषित' नामक ग्रंथ पर लिखी गई नियुक्ति अनुपलब्ध होने से उसके विषय में जानकारी प्राप्त नहीं .. (२) भाष्य साहित्य नियुक्ति की भांति भाष्य भी प्राकृत गाथाओं में संक्षिप्त शैली में लिखे गए हैं। बृहत्कल्प, दशवैकालिक आदि सूत्रों के भाष्य और नियुक्ति की गाथाएं परस्पर अत्यधिक मिश्रित हो गई हैं, इसलिए अलग से उनका अध्ययन करना कठिन है। नियुक्तियों की भाषा के समान भाष्यों की भाषा भी मुख्य रूप से अर्धमागधी ही है, अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग भी देखने में आते हैं। इस साहित्य में मुख्य छन्द आर्या है। भाष्यों का समय सामान्य तौर पर ईस्वी सन् की लगभग चौथी-पाँचवी शताब्दी माना जा सकता है। भाष्यसाहित्य में विशेष रूप में निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य का स्थान अत्यन्त महत्त्व का है। इस साहित्य में अनेक प्राचीन अनश्रुतियां, लौकिक कथाएं और निर्ग्रन्थों के परम्परागत प्राचीन आचार-विचार की विधियों आदि का प्रतिपादन है। जैन श्रमण-संघ के प्राचीन इतिहास को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए उक्त तीनों भाष्यों का गम्भीर अध्ययन आवश्यक है। . संघदासगणि क्षमाश्रमण, जो वसुदेवहिण्डी के कर्ता संघदासगणि वाचक से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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