Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 473
________________ 1458 2 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ है।" देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्करण्डक के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उललेख कल्पसूत्र स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है और इस आधार पर वे ई.पू. प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध होते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसाभी उल्लेख है। इस संदर्भ में और विस्तार से चचा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की है। देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई.पू. प्रथम शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध लेख में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिषकरण्डक के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें निर्युक्त साहित्य में उपलब्ध होता है। आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगीग ईसा की प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व क संदर्भ में भी चूर्णि साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्त परिज्ञा के कर्ता के रूप में भी आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। वीरभद्र के काल के संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य है। इस प्रकार निष्कळ रूप में हम यह कह सकते है कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवी शताब्दी तक लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ईसा की पांचवी-छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र में उल्लिखत हैं, वस्तुत: प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की किंचित सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलत: आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते है। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछभी नहींहै जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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