Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 477
________________ |462 - जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति इन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है तथा उत्कालिक के अन्तर्गत देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुर- प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरण विभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। प्राचीन आगमों में प्रकीर्णकों का नामोल्लेख होने पर भी उन्हें अंग-प्रविष्ट आगम' आदि की तरह 'प्रकीर्णक' श्रेणी में विभाजित नहीं किया गया था। सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा में आगमों का अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख मिलता है। नंदिसूत्र में अंग आगम, आवश्यक व प्रकीर्णकों को स्वाध्याय समय की अपेक्षा कालिक एवं उत्कालिक ऐसे दो भागों में बाँटा गया था, किन्तु कालान्तर में इन प्रकीर्णकों के बारे में दो महत्त्वपूर्ण परिपाटियाँ क्रमश: विकसित हुई :(१) इन प्रकीर्णकों को भी आगम का दर्जा दिया गया। (२) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विषयादि की अपेक्षाओं से इन प्रकीर्णकों का वर्गीकरण भी हुआ जैसे – १२ प्रकीर्णकों को उपांग सूत्रों के समकक्ष, ६ प्रकीर्णकों को छेद सूत्रों के समकक्ष तथा ६ प्रकीर्णकों को मूलसूत्रों के समकक्ष रखा गया तथा शेष अवर्गीकृत प्रकीर्णकों को प्रकीर्णक-आगम के नाम से ही पुकारा जाने लगा। श्वेताम्बर परम्परा में मंदिरमार्गी ४५ आगम (११ अंग + १२ उपांग + ६ छेद + ६ मूल + १० प्रकीर्णक) तथा स्थानकवासी ३२ आगम (११ अंग + १२ उपांग + ४ मूल + ४ छेद + १ आवश्यक सूत्र) मानते हैं। तथा दिगम्बर परम्परा बारहवें अंग दृष्टिवाद पर आधारित कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि के अतिरिक्त अंग आगमों को विलुप्त मानती है। प्रोफेसर सागर मल जैन ने प्रकीर्णक की दस संख्या सम्बन्धी मान्यता को परवर्ती माना है तथा अंग आगम-साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंग बाह्य साहित्य को प्रकीर्णक के अन्तर्गत मानने का पक्ष प्रस्तुत किया है तथा प्रकीर्णक शब्द का तात्पर्य 'विविधग्रंथ' किया है। जौहरी मल पारख ने प्रकीर्णक शब्द को पारिभाषिक प्रयोग कहकर प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थ को प्राय: एक सुसंहत विषयवस्तु वाला माना है, उन्होंने प्रकीर्णक शब्द को विस्तृत, विविध, मिक्सचर आदि सामान्य अर्थ में प्रयुक्त नहीं माना है। प्रकीर्णकों की संख्या के विषय में मतैक्य नहीं है। यद्यपि मन्दिरमार्गी श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों की सख्या १० मान्य है, किन्तु इनमें कौनसे ग्रन्थ समाहित हों इस विषय में मतभेद है। ४५ आगमों में निम्नलिखित १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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