Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ | 422 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | तक वे रोग से मुक्त न हों तब तक उनकी अग्लान भाव से सेवा करने का निर्देश दिया गया है। बाद में गणावच्छेदक उस पारिहारिक भिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। सूत्र १८ से २२ में अनवस्थाप्य (चोरी या मारामारी करने वाले नवम प्रायश्चित्त के पात्र साधु) एवं पारांचिक (दसवें प्रायश्चित्त के पात्र) भिक्षु को पुन: दीक्षित करने का विधान किया गया है। अनवस्थाप्य एवं पारांचिक भिक्षु को गृहस्थ लिंग धारण करवाकर ही पुन: संयम में उपस्थापित करने का निर्देश है। कदाचित् गृहस्थ लिंग को धारण कराये बिना भी पुन: दीक्षा देना गण के प्रमुख के निर्णय पर निर्भर है। गण का हित जिस तरह करने में हो वैसा कर सकता है। सूत्र २३-२४ में बताया गया है कि यदि कोई भिक्षु अन्य भिक्षु पर आक्षेप लगाए. और विवाद पूर्ण स्थिति हो तो स्पष्ट प्रमाणित होने पर ही प्रायश्चित्त देना चाहिए, प्रमाणित न होने पर स्वयं दोषी के दोष स्वीकारने पर ही उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए। गण प्रमुख को कभी भी एक पक्ष के कथन से ही निर्णय नहीं करना चाहिए, अपितु उभय पक्ष को सुनकर उचित निर्णय करना चाहिए। सूत्र २५ में बताया गया है कि एकपक्षीय अर्थात् एक ही आचार्य के पास दीक्षा और श्रुत ग्रहण करने वाले भिक्षु को अल्प समय के लिए या यावज्जीवन आचार्य या उपाध्याय के पद पर स्थापित करना या धारण करना कल्पता है। सूत्र २६ से २९ में पारिहारिक एवं अपारिहारिकों के परस्पर आहारसंबंधी व्यवहार का कथन है। यदि पारिहारिक के साथ अपारिहारिक एक माह तक साथ रहे तो ५ दिनों बाद साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, २ माह रहने पर १० दिन बाद, इस तरह ६ मास साथ रहने पर एक मास बाद, साथ बैठकर आहार कर सकते हैं। पारिहारिक को स्थविर की आज्ञा से ही आहार दिया जा सकता है तथा पारिहारिक स्थविर की आज्ञा होने पर ही कभी दोनों पक्षों की गोचरी ला सकता है एवं परिस्थितिवश विगय सेवन कर सकता है। आहार पात्र तो अलग अलग ही होने चाहिए। तृतीय उद्देशक सूत्र १ व २ में भिक्षु के गण धारण का विधान किया गया है। सूत्र ज्ञान की योग्यता से युक्त परिच्छन्न (आचारांगादि सूत्रों के परिज्ञान से युक्त) भिक्षु ही गणप्रमुख बन सकता है, किन्तु स्थविरों की आज्ञा के बिना वह ऐसा नहीं कर सकता। यदि ऐसा करता है तो जितने दिन गणनायक बनता है उतने ही दिन की दीक्षा का छेद या परिहार तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। उसके साथ वाले साधुओं को यह प्रायश्चित्त नहीं आता है। सूत्र ३-४ में उपाध्याय पद की योग्यता का विधान है। ३ वर्ष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544