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| 218TRA जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आगम में न करके ज्ञाताधर्मकथांग' नामक छठे अंग सूत्र में क्यों किया गया है? ऐसा प्रश्न हमारे मस्तिष्क पटल पर उभरता है। समाधान रूप में कहा जाता हैं कि छठे अंगसूत्र में धर्मयुक्त पुरुषों की शिक्षाप्रद जीवन घटनाओं का वर्णन है और मेघकुमार के जीवन में भी कितनी ही ऐसी शिक्षाप्रद घटनाएँ घटित हुई हैं, जिनके पढ़ने से प्रत्येक व्यक्ति को अत्यन्त लाभ हो सकता है, किन्तु अनुत्तरौपपातिक सूत्र में केवल सम्यक् चारित्र पालन करने का फल बताया गया है। अत: मेघकुमार के चरित्र में विशेषता दिखाने के लिए उसका वर्णन नवम अंग में न देकर छठे अंग में ही दिया गया है।
जालिकुमार आदि राजकुमारों ने भगवान से दीक्षा ग्रहण की तथा उनके ही समीप ११ अंगों का अध्ययन किया, यह बात कैसे सम्भव हो सकती है? क्योंकि इस नवम अंग सूत्र में स्वयं जालिकुमार आदि राजकुमारों का वृत्तान्त है। अत: जालिकुमार आदि राजकुमारों द्वारा अपने ही चरित्र के प्ररूपक अनुत्तरौपपातिक दशा सूत्र का अध्ययन सर्वथा असंभव है। प्रश्न उपस्थित होता है कि उन्होंने कौनसे नौवें अंग का अध्ययन किया?
समाधान इस प्रकार है- "अंग अर्थरूप से ध्रुव , नित्य एवं शाश्वत हैं अर्थात् आगम का स्वरूप सदा सर्वदा नियत होता है। अर्थरूप अर्थात् साररूप में भगवान महावीर के द्वारा नौवें अंग में किन-किन मार्गों से और कैसी कैसी साधना से मोक्ष होता है, यह कहा गया है। ये कथन सार्वभौमिक सत्य हैं। इन सत्य कथनों का ही अध्ययन नवम अंग के रूप में जालिकुमार आदि ने किया। जो स्वरूप नवम अंग का हमारे सामने प्रस्तुत है वह तो महावीर स्वामी के निर्वाण पद-प्राप्ति के अनन्तर प्रतिपादित किया गया है। सूत्र रूप कथन को पूर्ण रूप से प्रतिपादित करने के लिए हेतु और दृष्टान्त के प्रयोग किए जाते हैं, इसी का अनुकरण करते हुए सुधर्मा स्वामी ने भी भगवान महावीर के सार कथन को हेतु व दृष्टान्त (जालिकुमारादि) देकर नवम अंग को इस रूप में अंकित किया है।
अनुत्तरौपपातिकदशा के अतिरिक्त जालि आदि १० कुमारों का वर्णन अन्तगड सूत्र के चतुर्थ वर्ग के अध्ययन १ से १० में भी प्राप्त होता है। ये जालि आदि १० कुमार भगवान अरिष्टनेमि के तीर्थ में हुए। इन १० कुमारों के नाम इस प्रकार हैं- जालि, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, प्रद्युम्न, शंब, अनिरुद्ध, सत्यनेमि और दृढ़नेमि। इन दोनों तीर्थों के १० कुमारों में कुछ समानताएँ हैं जैसे- प्रथम पाँचों के नाम एक ही हैं, इन पाँवों की माता का नाम भी धारिणी है। इनकी भी दीक्षा पर्याय १६ वर्ष है। इसके अतिरिक्त पिता, नगर, उद्यान, धर्मगुरु, धर्माचार्य, दीक्षापर्याय, संलेखना स्थल आदि में विभिन्नताएँ हैं। द्वितीय वर्ग
यह वर्ग १३ अध्ययनों में विभक्त है। इन अध्ययनों में दीर्घसेन,
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