Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 411
________________ 1396 R RANTRA जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका सम्पदा और चार कर्त्तव्य कहे गए हैं तथा चार कर्त्तव्य शिष्य के कहे गए हैं। पाँचवी दशा में चित्त की समाधि होने के १० बोल कहे हैं। छठी दशा में श्रावक की ११ प्रतिमाएँ हैं। सातवीं दशा में भिक्षु की १२ प्रतिमाएँ हैं। आठवीं दशा का सही स्वरूप व्यवच्छिन्न हो गया या विकृत हो गया है। इसमें साधुओं की समाचारी का वर्णन था। इस दशा का उद्धृत रूप वर्तमान कल्पसूत्र माना जाता है। नौवीं दशा में ३० महामोहनीय कर्मबंध के कारण हैं। दसवीं दशा में ९ निदानों का निषेध एवं वर्णन है तथा उनसे होने वाले अहित का कथन है। दशाक्रम से इस छेदसूत्र. की संक्षिप्त विषय-वस्तु निम्न प्रकार हैप्रथम दशा साध्वाचार (संयम) के सामान्य दोषों या अतिचारों को असमाधिस्थान कहा गया है। इनके सेवन से संयम निरतिचार नहीं रहता है। बीस असमाधिस्थान निम्न हैं१. शीघ्रता से चलना २. अन्धकार में चलते समय प्रमार्जन न करना ३. सम्यक् रूप से प्रमार्जन न करना ४. अनावश्यक पाट आदि ग्रहण करना या रखना ५. गुरुजनों के सम्मुख बोलना ६. वृद्धों को असमाधि पहुँचाना ७. पाँच स्थावर कायों की सदा यतना नहीं करना अर्थात् उनकी विराधना करना, करवाना ८. क्रोध से जलना अर्थात् मन में क्रोध रखना ९. क्रोध करना अर्थात् वचन या व्यवहार द्वारा क्रोध को प्रकट करना १०.पीठ पीछे निन्दा करना ११.कषाय या अविवेक से निश्चयकारी भाषा बोलना १२.नया कलह करना १३.उपशान्त कलह को पुन: उभारना १४.अकाल (चौंतीस प्रकार के अस्वाध्यायों) में सूत्रोच्चारण करना १५.सचित्त रज या अचित्त रज से युक्त हाथ-पाँव का प्रमार्जन न करना अर्थात् प्रमार्जन किए बिना बैठ जाना या अन्य कार्य में लग जाना १६.अनावश्यक बोलना, वाक्युद्ध करना एवं उच्च स्वर से आवेश युक्त बोलना १७.संघ या संगठन में अथवा प्रेम संबंध में भेद उत्पन्न हो ऐसा भाषण करना १८ कलह करना, तुच्छतापूर्ण व्यवहार करना २० अनेषणीय आहार-पानी आदि ग्रहण करना अर्थात् एषणा के छोटे दोषों की उपेक्षा करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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