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व्यवहार सूत्र.
4191 उद्देशक सूत्र संख्या
सूत्र संख्या (ववहार सुत्तं-मुनि कन्हैयालाल कमल') (त्रीणि छेदसूत्राणि, ब्यावर) प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पंचम षष्ठ सप्तम
२७ अष्टम नवम दशम प्रथम उद्देशक
सूत्र १ से १८ में परिहार योग्य स्थल का सेवन करने पर एक मास से लेकर छ: मास तक के प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। यहां उत्कृष्ट प्रायश्चित्त छ: माह इसलिए बताया गया है, क्योंकि जिस तीर्थंकर का शासन होता है उस तीर्थकर के शासन में जितना तप उत्कृष्ट माना जाता है उसी के अनुसार उनके आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों को उत्कृष्ट तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। भ. महावीर के शासन का उत्कृष्ट तप ६ माह है। प्रथम सूत्र में बताया गया है कि जो भिक्षु या भिक्षुणी एक बार मासिक परिहार स्थान अर्थात् त्यागने योग्य स्थान की प्रतिसेवना (आचरण) करके दोषों की आलोचना करे तो आचार्यादि मायारहित आलोचना करने वाले को एक मास का तथा माया सहित आलोचना करने वाले को दो मास का प्रायश्चित्त दें। मायारहित आलोचना कर्ता के लिए जो प्रायश्चित्त है, माया सहित आलोचना–कर्ता के लिए उससे एक मास अधिक प्रायश्चित का विधान है। इससे स्पष्ट होता है कि सरलता में ही धर्म है, चारित्र शुद्धि है--- सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। मायावी व्यक्ति ज्यादा अपराधी होता है, इसीलिए उसे ज्यादा प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस तरह क्रमश: द्विमासिक, त्रिमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक परिहार स्थान की एक या अनेक बार प्रतिसेवना करने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जिसने अनेक दोषों का सेवन किया हो उसे क्रमश: आलोचना करनी चाहिए और फिर सभी का साथ में प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करते हुए यदि पुन: दोष लग जाए तो उसका पुन: प्रायश्चित्त लेना चाहिए। इन सूत्रों में यह भी बताया गया है कि जो पारिहारिक है अर्थात् परिहार तप को वहन करने वाला है वह किसी अन्य भिक्ष से संभाषण नहीं कर सकता, आहारादि का आदान-प्रदान नहीं कर सकता। केवल कल्पाक (प्रायश्चित्त देने वाले
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