Book Title: Jainpad Sangraha 02 Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 7
________________ हिनीयमा ! मग मरी। जीवनके परिनामनिकी यह, अनि विचित्रता दन्नर जानी ॥ टेक। नित्य निगादमाहित कड़िकर, नर परजाय पाय सुग्नदानी। समकिन नहि अंतर्मुहम केवल पाय वर शिवरानी ॥ १॥ मुनि एकादश गुणधानक चदि. गिरन नहांत चितम्रम ठानी। भ्रमत अधपुरलग्रावर्तन, किंचित् जन कान परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी मॅभाल, तानै गाफिल मन हे माना। बंध माक्ष परिनामनिहीमां, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ॥३॥ सकल उपाधिनिमिन भावनिमो. भिन्न म निज परनतिको छानी । नाहि जानि नचि ठानि होह थिर, भागचन्द यह मीग्न सयानी जीवन पर०॥४॥ परननि सब जीवनको, नीन मोनि घरनी। एक पुण्य एक पाप. एक गगहरनी ।। परननि० कि!! तामै शुभ अगम अंध. दांय करें कमबंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपरांग, पावत नाही मनोग. तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥६॥ त्याग शुभ क्रियाकलाप, करो मन कदाच पाप. शुभमें न मगन होग, शुद्धता विसरनी ।Page Navigation
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