Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 26
________________ जैनपदसंग्रह राग मल्हार । मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिष्टै दो दिन तीन । धनजोवन छनभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ॥१॥ भरत नरेन्द्र खंड-खट-नायक, तेहु भये मद हीन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज हि दीन ॥ मान न ॥ भागचन्द मार्दव-रससागर,-माहिं होहु लवलीन । तातै जगतजालमें फिर कहं, जनम न होय नवीन । मान न० ॥३॥ राग मल्हार। अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो॥टेक।। लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ॥ अरे हो ॥१॥ सो तू खोवत विषयनमाही, धरम नहीं चित लायो । अरे हो ॥२॥ भागचन्द्र उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो॥ अरे हो० ॥३॥ राग मल्हार। वरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातपपीर ॥ वरसत ॥१॥ स्थावाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर ॥ वरसत० ॥२॥ करुनानदी

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