Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 47
________________ द्वितीयभाग : . पुनि तहां, सुणसी कौन फिराद । भव० ॥२॥ भाग.. चन्द श्रीगुरु शिक्षा विन, भटका काल अनाद । तू कतो तृही फल भोगतं, कौन करें क्कवाद।। भव ॥१॥ जे सहज होरीके खिलारी, तिन जीवनकी बलिहारी ॥टेक॥ शांतभाव कुंकुम रस चन्दन, भर ममता पिचकारी ।उड़त गुलाल निर्जरा संवर, अंवर पहरै भारी जे०॥? || सम्यकदर्शनादि सँग लेक, परम सखा सुखकारी। भीज रहे निज ध्यान रंगमें, मुमति सन्त्री प्रियनारी ॥ ७० ॥२॥ कर मान ज्ञान जलम पुनि, विमल भये शिवचारी । भागचन्द तिनं पनि नित वंदन, भावसमेत हमारी ॥ जे० ॥३॥ ____ राग दीपचन्दी सारटकी । लखिक स्वामी रूपका, मेरा मन भया चंगा जी टेकाविभ्रम नष्ट गम्ड लखि जैसे, भगत भुजंगाजी । लखि० ॥१॥ शीतल भाव भये अब न्हायो, भक्ति सुगंगा जी लिखि० ॥२॥ भागचन्दु अब निलरसरंगा जी ॥ लाखक० ॥ ३ ॥ राग दीपचन्दी ईमन ! .. ... : स्वामीरूप अनूप विशाल, मन मेरे बसा टेका।

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