Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 45
________________ द्वितीयमाग! राग दीपचन्दी सोरठ। प्रानी समकित ही शिवपंथा। या विन निर्मल सब ग्रंथा ।टेका जाविन पाह्यक्रिया तप कोटिक, सफल वृथा है रंथा। पानी॥१॥ यजुतरथ भी सारथ विन जिमि, चलत नहीं ऋजु पंथा ॥ प्रानी ॥२॥ भागचन्द सरधानी नर भये, शिवलछमीके कंथा ॥ प्रानी० ॥३॥ राग दीपचन्दी । । तेरे ज्ञानावरनदा परदा, तातै सूझत नहिं भेद स्व' परदा ॥ टेक ॥ ज्ञान विना भवदुख भोगै तू, पंछी जिमि विन परदा ॥ तेरे०॥ १ ॥ देहादिकमें आपौ मानत, विभ्रममदवश परदा ॥ तेरे ॥२॥ भागचन्द भव विनसै वासी, होय त्रिलोक उपरदा गातेरे ॥३॥ ७४ .. .. राग दीपचंदी खम्माचकी। जैनमन्दिर हमको लागै प्यारा ॥टेका कैंधी व्याह मुकति मंगल ग्रह, तोरनादि जुत लसत अपारा ।। जैन० ॥ १॥ धर्मकेतु सुखहेत देत गुन, अक्षय पुन्य, रतनभंडार ॥ जैन ॥२॥ कहुं पूजन कहूं भजन होत हैं, कहुं बरसत पुन श्रुतरसधारा जैन॥ ३॥ ध्या

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