Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 50
________________ ४६ जैनादसंग्रह विषयचाह तजि निज वीरज सजि, करत पूर्वविधि छीना । भागचन्द साधक व्है साधत, साध्य स्वपद स्वाधीना ॥ जिन० ॥ ३ ॥ ८४ राग दीपचन्दी । J यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ॥ टेक ॥ ॥ टेक ॥ निज चेतनस्वरूप नहिं जाने, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित, यह तह अति अकुलावै ॥ यह० ॥ १ ॥ इष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढ़ावै । निजहितहेत भाव चित सम्यक दर्शनादि नहिं ध्यावै ॥ यह० ॥ इन्द्रियतृप्ति करन के काजै, विषय अनेक मिलावै । ते न मिलें तब खेद खिन्न है, सममुख हृदय न ल्यावै ॥ यह० ॥ ३ ॥ सकल कर्मछय लच्छन लच्छित, मोच्छदशा नहिं चावै । भागचन्द ऐसे भ्रमसेती, काल अनंत गमावै यह मोह० ॥ ४ ॥ ८५ प्रेम अब त्यागहु पुद्गलका । अहितमूल यह जना सुधीजन ॥ टेक ॥ कृमि-कुल-कलित स्रवत नव द्वारन, यह पुतला . मलका । काकादिक भखते जु नं होता, चामतना खलका || प्रेम० ॥ १ ॥ काल च्याल -मुख थित इसका नहिं, है विश्वास पलका । क्षणिक

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