Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 31
________________ द्वितीयभाग | २७ आगमके अभ्यासमाहिं पुनि चित एकाग्र सदैव लगाऊं । संतनकी संगति तजिकै मैं, अंत कहूं इक छिन नहिं जाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ २ ॥ दोषवादमें मौन रहू फिर, पुण्यपुरुषगुन निशिदिन गाऊं । मिष्ट स्पष्ट सबहिसों भाष, वीतराग निज भाव बढ़ाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ ३ ॥ वाहिदृष्टि ऐंचके अन्तर, परमानन्दस्वरूप लखाऊं । भागचन्द शिवप्राप्त न जौलौं तों लौं तुम चरनांबुज ध्याऊं ॥ प्रभूपै० ॥ ४ ॥ ५१ लावनी । धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि दरी ॥ टेक ॥ जड़तें भिन्न लखी चिन्मूरति चेतन स्वरस भरी । अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, परमें सब परिहरी ॥ धन्य० ॥ १ ॥ पापपुन्य विधिबंध अवस्था, भासी अतिदुखभरी । वीतराग विज्ञानभावमय, परिनत अति विस्तरी ॥ धन्य० ॥ २ ॥ चाह-दाह विनसी चरसी पुनि, समतामेघझरी | बाढ़ी प्रीति निराकुल' पदसों, भागचन्द हमरी ॥ धन्य० ॥ ३ ॥ * ५२. लावनी ।' सफल है धन्य धन्य वा घरी, जब ऐसी अति निर्मल

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