Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 34
________________ ३० जैनपढ़ संग्रह रखवार | परमगुप्त निजरूप सहज ही, परका तहँ न मँचार ॥ ज्ञानी० ॥ २ ॥ चितस्वभाव निज प्रान तासको, कोई नहीं हरतार | मैं चितपिंड अखंड न तातें, अकस्मात भयभार ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ होय निशंक स्वरूप अनुभव, जिनके यह निरधार । मैं सो मैं पर सो मैं नाहीं, भागचन्द भ्रम डार ॥ ज्ञानी ० ॥ ४ ॥ ५६ राग जोडा । मैं तुम शरन लियो, तुम सांचे प्रभु अरहंत ॥टेक॥ तुमरे दर्शन ज्ञान भुकर में, दशज्ञान झलकंत । अतुल निराकुल सुख आस्वादन, वीरज अरज (?) अनंत ॥ मैं तुम० ॥ १ ॥ रागद्वेष विभाव नाश भये परम समरसी संत | पढ़ देवाधिदेव पायो किय, दोष क्षुधादिक अंत ॥ मैं तुम० ॥ २ ॥ भूषन वसन शस्त्र कामादिक, करन विकार अनंत । तिन तुम परमोदारिक तन, मुद्रा सम शोभंत ॥ मैं तुम ० ॥ ३ ॥ तुम दानीतें धर्मतीर्थ जग, माहिं त्रिकाल चलंत | निजकल्याणहेतु इन्द्रादिक, तुम पदसेव करत || मैं तुम० ॥ ४ ॥ तुम गुन अनुभव निज पर गुन, दरसत अगम अचिंत | भागचन्द निजरुपप्राप्ति 'अब, पावै हम भगवंत ॥ मैं तुम० ॥ ५ ॥ . 6

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