Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 38
________________ ३४ जैनपदसंग्रह नवरजी॥१४॥ मैं जीवद्रव्य विन अंग। लागो अनादि विधि संग। तानिमित पाय दुख पाये।हम मिथ्यातादि महा ये॥१९॥निज गुण कवहूं नहिं भाये । सब परंपदार्थ अपनाये।रति अरति करी सुखदुख में। व्है करि निजधर्म विमुख में ॥१६॥ पर चाह-दाह नित दाहौ। नहिं शांत सुधा अवगाहौ॥पशुनारक नर सुरगतमें। चिर.भ्रमत भयो भ्रममतमें ॥१७॥ कीने बहु जामन मरना । नहिं पायो सांचो शरना । अब भाग उदय मो आयो। तुम दशेन निमेलं पायो॥ १८॥ मन शांत भयो उर मेरो। बाढ़ो उछाह शिवकेरो। परविषयरहित आनन्द । निज रस चाखों निरंबन्द' . ॥१९॥ मुझ काजतने कारज हो। तुम देव तरन तारन हो । तातें ऐसी अव कीजे । तुम चरन भक्ति मोह दीजे ॥ २० ॥ दृग-ज्ञान-चरन परिपूर । पाऊं निश्चय भवचूर । दुखदायक विषय कषाय । इनमें परनति नहिं जाय ॥ २१॥ सुरराज समाज न चाहों। आतम-समाधि अवगाहों । पर इच्छा मो मनमानी। पूरो सब केवलज्ञानी ॥ २२॥ • दोहा। गनपति पार न पावहीं, तुम गुनजलधि विशाल । भागचन्द तुव भक्ति ही, करै हमैं वाचाल ॥ २३ ॥ . गीतिका। तुम परम पावन देख जिन, अरि-रज-नहस्य

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