Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 36
________________ जैनपदसंग्रह - ५८ राग दादरा । चेतन निज भ्रम भ्रमत रहै || टेक || आप अभंग तथापि अंगके संग महा दुख (पुंज) वहै । लोहपिंड संगति पावक ज्यों, दुर्धर घनकी चोट सहै | चेतन० ॥ १ ॥ नामकर्मके उदयं प्राप्त नर, नरकादिक, परजाय धेरै । तामें मान अपनपौ विरथा, जन्म जरा मृतु पाय डरे ॥ चेतन ० ' ॥ २ ॥ कर्ता होय रागरुप ढार्ने, परको साक्षी रहत न यहै। व्याप्य सुव्यापक भाव विना किमि, परको करता होत न यहै | चे० ॥ ३ ॥ जब भ्रमनीं त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत है । वीतराग सर्वज्ञ होत तब, भागचन्द हितसीख कहै ॥ चेतन० ॥ ४ ॥ ३२ ५९ दोहा | विश्वभावव्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । 'ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतौ जिनभूप ॥ १ ॥ छन्द चाल | 'सफली मम लोचनद्वंद्व । देखत तुमको जिनचंद | मम तनमन शीतल एम । अम्रतरस सींचत जेम ॥२॥ तुम बोध अमोघ अपारा। दर्शन पुनि सर्व निहारा । आनंद अतिन्द्रिय राजै । बल अतुल स्वरूप न त्याजै

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