Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 24
________________ जैनपदसंग्रहपटेका कारनविन उपगारी जगके, तारन-तरन-जिहाज ॥गिरिवन०॥॥ जनम-जरामृत-गद-गंजनको, करत विवेक इलाज | गिरिवन० ॥२॥ एकाकी जिमिरहितः केसरी, निरभय स्वगुन समाज ॥ गिरिदन ॥३॥ निर्भूषन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ।। गिरिवन० ॥४॥ ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, भागचन्द शिवकाज॥ गिरिवन० ॥५॥ राग सारठ । म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी। जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी | जगरचना दीसत अब लोकों, जैसी रॅहटघटी।। म्हांक घट० ॥१॥ - विभ्रम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अंजनवटी। तातें स्वानुभूति प्रापतित परपरनति सय हटी | म्हांक चट० ॥२॥ ताके विन जो अवगम चाह, सो तो शट कपटी । तातै भागचन्द निशिवासर, इक ताहीको रटी ॥ म्हांकै घट ॥३॥ . ३७ राग सोरठ। ओवै न भोगनमें तोहि गिलान ॥ टेक ॥ तीरथनाथ भोग तजि दीने, तिनतें मन भय आन । तु तिनतें कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै. न० ॥१॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगै, विषय

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