Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ द्वितीयभाग | १९. ॥ ४ ॥ जासु गुन नहिं पार पावत, दिदि बी । भागनंद सु अलपमनि जन की नहीं क्या पी ॥ इष्टजिन० ॥ ५ ॥ ३३ राग सोरट । स्वामी मोह अपनी जानि नारी. या विनती अप चिन धारी ॥ जगन उजागर करनासागर, नागर नाम निहारी ॥ स्वामी मोह० ॥ १ ॥ भव अव भटक भटकन, अब मैं अभी हारी ॥वामी मह० || २ || भागचन्द्र स्वच्छन्द ज्ञानमय, व अनंन विस्तारी || स्वामी मोह० ॥ ३ ॥ राग मोठ देशी । थाकी तो वानीमें हो, निज स्वपस्प्रकाशक ज्ञान ॥क। एकीभाव भये जड़ चेनन, तिनकी कर पान ॥ बाकी तो० ॥ १ ॥ सकल पदार्थ प्रकाशन जामें, मुकुर तुल्य अमला ॥धांकी नो० ॥२॥ जग चूडामनि शिव भयं ने ही, तिन कीनों सरघान ॥ थांकी तां० || ३ || भागचंद युवजन ताहीको निशदिन करन यग्वान || धांकी तां ॥ ४ ॥ ३५ राम मोरटा | गिरिवनवासी मुनिराज मन बसिया प्रारं हो

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53