Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 21
________________ द्वितीयभान टेक ॥ स्वानुभूति रमनी मेंग काई, ज्ञानसंपदा मार्ग ॥ श्रीगुमः ॥ १॥ ध्यान पांजरामं जिन गेली. चिन ग्वग चंचळचारी थे। श्रीगुरु है० ॥२॥ निनक चरनमरांम्ह ध्यांव, भागचन्द अवटारी । श्रीगुरु० ॥ ॥ गगनमान। सारी दिन निरफल ग्यायया कर है। नरभव -- हिकर पानी बिनज्ञान. मार्ग दिन नि० ॥ टेक॥ परसंपति लम्बि निचिनमाही. बिग्धा मग्ग्य गरमी कर है | मारी ॥ १ ॥ कामानलनै जरत मदा ही, मन्दर कामिनी जाया करे ॥ मार्गः ॥२॥ जिनमत तीर्थस्थान नठान, जलमा पहान्न धारयों कर है। सारा०॥3॥ भागचन्द टमि धमरिना गाठ. मोहनीदमें सांपयो और है ॥ सारी० ॥ ४॥ मम आराम विहारी. माधुजन सम भाराम दि. हारी ॥ टेक ॥ एक कल्पनर पुष्पन मनी. जजनभाग विस्तारी ॥ एक कंटविन म नाग्विा , मांच जुन भारी । राम्पत एक शनि दोस्नमैं, मयही उपगारी । मम आरा ॥१॥ सारंगी हरियान सुखाय पनि

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