Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ শিন। महा अघग्वान । मा जसे पृतधारा टांग. पाचकन्याल युझान || आर्य न० ॥२॥ ज सुन्न नी नी. छन कुन्वदाई, ज्यों मयुलिप्र-कृपान । नाने भागवत उनको नजि. आत्मस्वरूप पिहान || आर्यन || गा । स्वामीजी तुम गुद अपरंपार. चन्द्रावन, अधिकार ॥ टंक । जब नुम गर्भमाहिं आंग. नर नय सनगन मिलि आय । रतन नगरी यम्याग. अमिन अमोघ मुहार ।। स्वामीजी ॥ ॥ जन्म प्रमु तुमने जय नीना. न्हवन मंदिर हरि कीना । भान, कारि मना मदिन भीना. याला जयजयकार स्वामीजी ॥२॥ जगत नभंगुर जब जाना. भय नय नगनबनी चाना। स्तवन लोकांनिकसुर बाना. न्याग गजका भार स्वामीजी घानिया प्रक्रानि व नामी चराचर वन्तु सर्व भाला । धर्मकी ऋष्टि करी ग्वामी, केवलज्ञान भंडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४ ॥ अघाती प्रकृति मुविवटाई. मुनिकान्ना नए ही पाई। निराकुल आनंद असहाई. नीनलोकमरदार ॥ या. माजी० ॥५॥ पार गनघर नहिं शव. सहा लाग भागचन्द गावं । तुम्हारे नरनांबुज ध्या. भवमागर सोनार | स्वामीजी ॥६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53