Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
नैनपदसंग्रहशील निरतिचार धार, मारको सदैव मार, अंतरंग पूर्ण ज्ञान, रागको विंधाई ॥२॥ यथाशक्ति द्वादश तप, तपो शुद्ध मानस कर, आर्त रौद्ध ध्यान त्यागि, धर्म शुक्ल ध्याई ॥३॥ जथाशक्ति वैयावृत, धार अष्टमान टार, भक्ति श्रीजिनेन्द्रकी, सदैव चित्त लाई ॥४॥ आरज आचारजके, चंदि पाद-वारिजकों, भक्ति उपाध्यायकी, निधाय सौख्यदाई॥५॥ प्रवचनकी भक्ति जतनसेति बुद्धि धरो नित्य, आवश्यक क्रिया न, हानि कर कदाई ॥६॥ धर्मकी प्रभावना सु, शर्मकर बढावना सु, जिनप्रणीत सूत्रमाहि, प्रीति कर अघाई ॥७॥ ऐसे जो भावत चित, कलुषता बहावत तसु, चरनकमल ध्यावत वुध, भागचंद गाई॥पोड़श०॥८॥
१०.
प्रभाती। श्रीजिनवर दरश आज, करत सौख्य पाया। अष्ट प्रातिहार्यसहित, पाय शांति काया ॥ टेक ॥ वृक्ष है अशोक जहां, भ्रमर गान गाया। सुन्दर मन्दार-पहुप, वृष्टि होत आया ॥१॥ ज्ञानामृत भरी वानि, खिरै भ्रम नसाया। विमल चमर'ढोरत हरि; हृदय भक्ति लाया ॥२॥

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53