Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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१.
जैनपदसंग्रह
राग चर्चरी। सांची तोगंगा यह वीतरागवानी, अविच्छन्न धारा निज धर्मकी कहानी ॥ सांची०॥टेक ॥ जामें अति ही विमल अगाध ज्ञानपानी, जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सांची ॥ १ ॥ सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी, संतचित मरालवंद रमैं नित्य ज्ञानी ।। सांची ॥२॥ जाके अवगाहनते शुद्ध होय पानी,भागचंदनिहचैघटमाहियाप्रमानी ॥सांची ॥२॥
राग प्रमाती। प्रभु तुम मूरत हगसों निरखै हरलै मोरो जीयरा ॥ प्रभु तुम ॥ टेक ॥ भुजत कषायानल पुनि उपजै, ज्ञानसुधारस.सीयरा ॥ प्रभु तुम ॥१॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसै नीयरा प्रसु तुम० ॥२॥ भागचंद तुम चरन कमलमें, वसत संतजन हीयरा प्रभु०॥३॥
. . राग प्रभाती।
अरे हो जियरा धर्ममें चित्त लगाय रे.॥ अरे हो. टेका विषय विषसम जान भौढूं, वृथा क्यों लुभाय: रे । अरे हो० ॥ १॥ संग भार:विषाद तोकौं, करत .

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