Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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द्वितीयभाग।
क्या नहिं भाय रे । रोग-उरग-निवास-वामी. कहा नहिं यह काय रे ॥ अरे हो० ॥२॥ काल हरिकी गर्जना क्या. तोहि सुन न पराय रे । आपदा भर नित्य नोकौं कहा नहिं दुख दायर ॥ अरे हो । यदि तोहि कहा नहीं दुग्य, नरक असहाय रे नदी बनरनी जहां जिय, पर अनि पिललाय रे। अरहोल ॥ ४ ॥ तन धनादिक धनपटल, मम, छिनकमांहीं बिलाय रे भागचंद सुजान दमि जद-कुल-निलक गुन गाय रे॥ अरे हो० ॥६॥
श्रीजिनवरपद ध्यायें जो नर श्रीजिनवर पद ध्या ॥ टेक ॥ निनकी कर्मकालिमा विन: परम ब्राम हो जावें । उपल अग्नि संजोग पाय जिमि कंचन विमन कहाव ।। श्रीजिनवर० ॥१॥ चन्द्राञ्चलजम तिनका जगम, पंडिन जन नित गाई । जमे कमलमुगंध दशादिश, पवन महज फैलावै ॥ श्रीजिनवर ॥२॥ निनहिं मिलनका मुक्ति सुंदरी चित अभिलाया ल्याचे । कृषि तृण जिम महज ऊपज न्यों स्पादिक पावै ॥ श्रीजिनवर० ॥॥जनमजरामन दावानल ये; भाव सलिलत भुजावै । भागचन्द कहाँ ताई परन, तिनहिं इंद्र शिर नार्दै ॥ श्रीजिनपर० ॥ ४ ॥

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