Book Title: Jainpad Sangraha 02
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 11
________________ द्वितीयमाण सिंहासन प्रमाचमा, बालजग सुहाया। देव दुंदुभी विशाल, जहां सुर बजाया ॥४॥ मुक्ताफल माल साहित. छत्र नीन लाया। भागचन्द अद्भुत छवि कहीं नहीं जाया॥ श्रीजिन| सगरी। वीनरागजिन महिमा धारी, वरनसकेको जन त्रिभुबनमा वीतराग पटेका। तुमरे अनद चतुष्टय प्रगट्यो, निम्शेपावरनच्छयाटिनम मित्र पटल विघटनप्रगटन जिमि मार्तड प्रकाश गगनमै ॥ चीनगग० ॥१॥ अप्रमेय ज्ञेयनके ज्ञायक, नहिं परिनमन नदपि जेय. नमें । देवन नयन अनेकाप जिमि, मिलन नहीं पुनि निज रिपयनमें वीतरागा निज उपयोग प्रापन स्वामी, गाल दिया निश्चल, आपनमें । है असमर्थ याय निकसनको, लवन घुला जसे जीवन में ॥ चीनराग० ॥३॥ तुमरे भक्त परम मुम्य पावत, परत अभक्त अनंत दुग्वनमें । जैसा मुग्व दंग्यो नैसी है, भासत जिम निर्मल दरपनमें ॥ चीतरागः ॥४॥ तुम कपाय दिन परम शांत हो. तदपि दक्ष कर्मा रिहननमें । जस अतिशीतल तुपार पुनि, जार देन द्रुम भारि गहनमें ।। वीतराग० ॥५॥ अथ तुम रूप १जीवन का रही है।

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