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१९२७ में जैनेन्द्र जी अपने मामा महात्मा भगवान दीन जी के साथ काश्मीर गए थे। उस यात्रा का आँखों देखा हाल, ऐसा लगता है, उन्होंने 'व्यतीत' में प्रस्तुत कर दिया है। वैसे उनके साहित्यिक जीवन का पहला चरण उस दिन उठा थाजब उनकी सबसे पहली कहानी "विशाल भारत' में छपी थी। उस समय जैनेन्द्र को कितना हर्ष हुआ होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि उससे पूर्व उन्हें साहित्य के द्वारा एक पाई भी नहीं मिली थी। यहीं से जैनेन्द्र के साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश हुमा ।
कहानीकार जैनेन्द्र
लाख असफलताओं ने जैनेन्द्र के मार्ग को अवरुद्ध किया हो, पर वे हर बार इन अग्नि-परीक्षाओं में कुदन की तरह चमकते बाहर आये हैं । उनकी अनेक मनो. व्यथाए और मनोक्षोभ उनकी रचनाओं में अवश्य ही कहीं न कहीं प्रकट हो उठे हैं। उनकी साहित्य को दिशाएँ हैं-उनके उपन्यास, उनकी कहानियां, उनके निबन्ध और उनके दार्शनिक प्रवचन आदि । उनकी इन साहित्यिक उपलब्धियों के एक विशिष्ट अंग 'कहानी' को ही लिया जाये तो हमें पता चलता है कि उनके अनेक कहानीसंकलन प्रकाश में पा चुके हैं । फांसी, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़िया, पाजेब और जय-सन्धि नामक कहानी-संग्रह तो पाठकों के समक्ष पहले ही प्रा चके थे। इधर 'पूर्वोदय' के प्रयास से उनकी कहानियों के पाठ संग्रह और भी प्रकाशित हो चुके हैं, जो 'जैनेन्द्र की कहानियां' के नाम से प्रख्यात हैं । जैनेन्द्र की इन कहानियों के विषय में राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा था कि "हिन्दी साहित्य के कथा-क्षेत्र'' में रवि और शरत् बाबू को एक ही साथ पाया और वह अब पाया (जैनेन्द्र में) । वे निश्चय ही "कथानक की दृष्टि से सर्वाधिक सशक्त हिन्दी-कथाकार हैं, जिन्होंने यथेष्ट लोकप्रियता प्राप्त की है तथा जो विशेष अध्ययन की वस्तु माने गये हैं।"
बौद्धिक और दार्शनिक दोनों ही प्रकार के विचारों से प्रोत-प्रोत उनकी मनोविज्ञान पर आधारित कहानियों ने जैनेन्द्र को इतना विख्यात बना दिया है। एक पालोचक महोदय का यह कथन सर्वथा सत्य है कि जैनेन्द्र का नारा ही 'कला ईश्वर के लिए' है । वे बहुत प्रबल ईश्वरवादी हैं और कहानियों एवं उपन्यासों में उन्हें मंतिम शरण ईश्वर की ही लेनी होती है।