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उपन्यासकार जैनेन्द्र
जैनेन्द्र के उपन्यासों की चर्चा ने उन्हें हिन्दी साहित्य का प्रख्यात कृतिकार बना दिया है । १६२६ में सर्वप्रथम वे 'परख' के माध्यम से हिन्दी पाठकों के द्वारा परखे गए । उसी साल जैनेन्द्र जी का विवाह भी हो गया और अगले वर्ष उन्हें इसी उपग्यास पर पाँच सौ रुपये का पुरस्कार भी मिल गया । इस प्रकार जैनेन्द्र को पहली बार साहित्यिक कृतियां श्राय का साधन बनती दीख पड़ीं । १९३२ में उनके उपन्यासों का तांता लग गया । तपोभूमि, सुनीता, त्याग-पत्र, कल्याणी, सुखदा, विवर्त और जयवर्धन ने हिन्दी - साहित्य की निरंतर श्रीवृद्धि की ।
'सुनीता' एक उथल-पुथल सी मचाती आई । उसकी प्रमुख पात्रा 'सुनीता' के अन्तद्वद्व को देखकर मैंने कई बार कोई कड़ी कहीं जोड़नी चाही है, पर मैं प्रसफल रहा हूँ, पर हिन्दी का पाठक उससे बहुत ही प्रभावित हुआ, क्योंकि अपनी व्यथानों अपने प्राक्रोशों और अपने भावावेशों को मुट्ठी में भींच कर जिस श्रद्वितीय प्रतिभा के साथ जैनेन्द्र जी आये थे, उससे ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने पाठक के समक्ष दिल खोलकर रख दिया और उसकी सहानुभूति और सहृदयता को प्रत्यन्त प्रासानी से प्राप्त कर लिया । जीवन-संघर्ष की अनेक सीढ़ियों पर कैसे चढ़ा जावे, इसका सरल तरीका आप ढूँढना चाहते हैं तो वकील साहब को 'कल्याणी' में से बुला भेजिये । हिन्दी का पाठक 'व्यतीत' को भी आसानी से विस्मृत नहीं कर सकता । जयन्त श्रौर अनिता के प्यार को उपन्यासकार ने अपने ही ढंग से प्रकट किया है और उसकी प्रकाशन - शैली में उसने जीवन की ऊहापोह को एक 'दर्शन' के रूप में प्रस्तुत कर दिया है | चन्द्री का पदार्पण और कपिला का प्रवेश प्यार की नई मान्यताएँ निर्धारित करने में एक बहुत बड़ी संयोजक कड़ी के रूप में श्राकर खड़ी हो जाती है । जीवन में हर कर्त्तव्य को आकर्षण - प्रत्याकर्षणों का शिकार बनना होता है । उन्हीं को गतिविधियों को मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मताओं के साथ बांधकर प्रस्तुत करना उपन्यासकार की सफलता है ।
इसके उपरान्त जैनेन्द्र जी के मन का दार्शनिक एक साथ सबल हो उठा और वह एक साथ ही साहित्य-सृजन से उदासीन हो गया । कुछ लोगों का कहना है कि जैनेन्द्र ने साहित्य से कमाई की बात को स्वीकार नहीं किया और इसीलिये १२१३ वर्ष तक उनकी कोई भी रचना हिन्दी साहित्य के सामने नहीं आ सकी । 'अर्जन' शब्द मूल से मिथ्या है, फिर भी इनके लेखन कार्य से वह शब्द जुड़ा हुआ है । इसी लिए उन्होंने सोचा कि कमाई ही अगर नहीं करनी तो फिर लिखने का काम भी नहीं करना ।