Book Title: Jaina Granth Bhandars in Rajasthan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 276
________________ Material for Research । 259 सो दिवसो सा राई सो य पएसो गुणाण प्रावासो । सुह गुरु तुह मुहकमलं दोसइ जत्थेव सुहजणण ॥२॥ कि भन्मुज्जो देसो किं वा मसि नत्थि तिहुयणे सयले । कि अम्हेहिं न कज ज लेहो न पेसिनो तुम्हे ।।३।। जर भुज्जो होइ मही उयहि मसी लेहिणी य वणराई । __ लिहइ सुराहि वणा हो तुम्ह गुणा ण याणंति ॥४॥ जह हसी सरइ सर पड्डल कुचमाइ महुयरो सरइ । चदण वरण च नागो तद् अम्ह मण तुम मरइ ॥५॥ जह भद्दवए मासे भमरा समरति अब कुसुमाइ । तह भयव मह हियय सुमरइ तुम्हाण मुहकमल ।।६।। जह वच्छ सरइ सुरहि वसतमास च कोइला सरइ । विज्झो सरइ गइदं तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥७॥ जह सो नील कलामो पावस कालम्मि पजर छूढो । ___ समरइ वणे रमिउ तह अम्हं मणं तुमं सरइ ।।८।। जह सरइ सीय रामो रुप्पिरिण करणहो गलो य दमयती।। गोरी सरइ रूद्द तह अम्ह मणं तुम सरइ ।।६।। 8. SRIPALA CARIU : Sripäla Cariu was composed by Brahma Danredara. It describes the life of Sripāla who was a great emperor according to the Jaina mythology, in the beginning of the work, the poet mentions the names of the Acaryas who had flourished before him and declares himself as the pupil of Bhattaraka Jina Candra. The work was composed on the request of Sāhu Nakhalů, son of Devarāj. It contains only four Sandhis. The manuscript belongs to the Sastra Bhandar of Jaina temple of Badhi Canda, Jaipur. In the beginning and end of the work, the poet has given a description of his patron. The last puspika of the work is as under :-- इय सिरिपाल महाराय चरिए जय पयड सिद्धचक्क परमानिसयबिसेस गुणरिणयरमरिए बहुरोर घोर दुट्ठयरवाहिपसरणिणणासणो धम्मडं पुरिसत्थायण पयासणो मट्टारय मिरि जिणचद सामि सीस बह्म दामोयर विरइए सिरदेवराज पदण 'साहु रणस्वतु णामकिए सिरिपालराय मुक्खगमण वहि वणणणो णाम चउत्यो सधी परिछेउ समत्तो।

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