Book Title: Jaina Granth Bhandars in Rajasthan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 298
________________ Material for Research 1281 ते निसुणु मावि भवीय, जिमु हुइ सफल संसार ।। उबरिण-प्रनिदिन सारदा देवि सेवि, सहि गूरु पागि लागी । पामीय सासु पसाउ भाइ, नरमल मत मागी ॥१॥ करि सुपरास उल्हास पगि प्रति प्रनोपम पाणी । गाईसु श्रीमूलसधि रगि, गुरू जगत बखाणी ॥ २ ॥ अन्तिम भाग जनिगढ़ गुरू उपदेसिइ, सखिर बंध प्रतिमव । सखि ठाकर प्रदराज्यस्यय रजि प्रासाद मांडीउए ॥२०॥ मंडलिक राइ बहु मानीउ देश व देशिज व्यापीयु । पीतलमइ मादिनाथ थिर थापीया ए ॥२१॥ इम करणी दिन दिन सुव सेखि चहुँ दिसि हुइ देस विदेसि । उपदेसि सुगुरु श्री मुवनकीरति तण इए ।।२२।। चिर न पुजा नभि रविचद, चउविध संघ पूरिइ पानद । सुभगति सुवचनि कवि सामल भणइए ॥२३॥ चउवीस जिणेसर प्रसादि श्रीभवनकीरति नव नवलि नारि। जयवता सकल सध कल्याण करुए ॥२४|| गणधर ।। इति श्री भट्टारक श्रीसकलकोतिनु रास समाप्ताः श्राविका बाई पुतलि पठनार्थ लिवापितं ।। 11. HOLI RĀSA: This was composed by Brahma Jinadasa, pupil of Bhattáraka Sakalakirti. 11 describes briefly the story of Holi according to the Jaina belief. It is in Hindi and written in Caupai, Düha and Vastu Bandha metres. It is written in Rajasthani in which several words of Gujarati bave been used. The manussript is preserved in the Grantha Bhandar of Teräpanthi temple. Jaipur. The end of the work is as follows: ए कथा रस साभली, समकित पालु सार । मिथ्या मारगि परिहरु, जिम पामु भव पार ॥ १४५ ॥ निकलंक धर्म छिरुया, जैन धर्म सविशाल । ते धर्म का माविमरघा, प्रवर मिथ्यात निवार ।। १४६ ।। परीक्षा करू पति निर्मली, रालु सयल विचार । समकिन पालु निर्मलु, जिम पांमु मुमति प्रतिसार ।। १४७ ॥

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