Book Title: Jaina Granth Bhandars in Rajasthan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 324
________________ Material for Research 1307 मातम सरिता सलिल जहं, सजम सील बखानि । तहाँ करहि मंजन सुधी, पहुचे पद निरवाणि ।।४।। छद गत्त भर परथ को, जहां मसुधता होइ । तहा सुकवि प्रवलौकि के, करहु सुद सब कोइ ।।६।। उपनी सांगानेरि को, अब कामा गढ वास । तहा हेम दोहा रच, स्वपर बुद्धि परकास ॥६॥ कामांगढ सूबस जहां कीरतिसिंध नरेम । अपने खग वलि वसि किए, दुर्जन जितेक देस ।।६।। सतहसर पचीस को, बरनै सवत सार । कातिक सुदि तिथि पचमी, पूरन भयो विचार ॥१०॥ एक मागरे एक सौ, कीये दोहा छद । जो हित दे बाचं पर्द, ता उर बधै अनद ॥१०१।। ॥ इती हेमराज कृत दोहा सपूर्ण ॥ 43. MANJHA: This is a new work of the famous Jaina poet Banarsi dása of the 17th Century. It is an ethical work which puts before us the real picture of the world. The date of the work is not given but the name of the poet comes thrice in the work. The manuscript is housed in the Sastra Bhandar of Jaina temple Bādhi Canda-Jaipur. Some of the verses of the work are as follows. माया मोह के तू मतवाला, तू विषया विषधारी । राग दोष पयो बस ठगी, चार कषायन भारी ।। कुरम कुंटव दीफा ही पायौ, मात तात सुत नारी । कहत दास बनारसी अल्प सुख कारने तो नर भव बाजी हारी ॥१॥ नर मोहार भकारज कीनो, समझन खेल्यो पासा । मानुष जनम प्रमोलक हीरा, हार गवायो खासा ।। चलो होय दुखदा भाजन, छाड सुखादी भासा । दसै दृष्टा ते मिलन दुहेला, नर भव गत विच वासा ।।२।। __ + +

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