Book Title: Jaina Granth Bhandars in Rajasthan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 328
________________ Material for Research [ 311 मारघा मुगल पठाण, दोन लाख दफतर चढ्या । भोर बोहोत दीया जाण, जहा तृण लीना मुख मैं ॥२१६॥ सा को हुवो चीसोड मैं, चौड कोयो जग । दाद फुरमाइ साह, तब कहै होहु तुव रग ।।२१।। इति गोरा बादल की कथा सपूर्ण । सवत् १८८६ का मिति भासाढ शुदि १४ रविवासरे लिखत सेवग जोगीदास लीखायत श्रावग रामनारागा मुत. बालचद । 46. DHARMA PARIKSA: Jt was translated into Hindi prose by Dasaratha Nigotia in Sanhvat 1718 i, e, in 1661 A. D. The original work which was composed by Amitigati is in Sańskut. The author has tried to translate each word of Samskrit in easy Hindi prose. The manuscript belongs to the Sästra Bhandär of Jaina temple Bada Mandir, Jaipur. The language of the work is Rajasthani. The beginning and the end of the work are as follows:-- मगलाचरण श्रीमान कहता शोमा विराजमान । यदीय. कहता जिह को बोधमय । प्रदीपः कहता केवल जान रूपी दीवो । जिहि दीप करि नमस्व त्रय तु गशान कहता पावन तीन सपन्नौ ऊ चो छ शाल कोटजिहि को अमौ जगत । लोक सम्पद्धो गृहे घर तिहि घरने समततो कहता सर्वथा प्रकागि । उद्योतयते कहता उद्योतित कियौ ई ज्यहां तीर्थकर देवा. ते तीर्थकर देवा नः अस्माक कहता म्हाको श्रेय कहता विभूति के मथि मवतु कहतां होऊ। भावार्थ-प्रसो जु ज्ञान सम्पन्ना दीवा करि तोन लोक सम्पन्नो घर उद्योनित कियो छ ज्याह के तीर्थकर म्हाने ज्ञान सम्पत्ती श्री को दाता हो । तीर्थकर ने नमकार कीयो मागे सिद्धाने करमी। श्री विक्रम पाथिव राजा ने सनंतर वरम अधिक हजार बरम गया । यौह शास्त्र अन्यमत न निषधि करि श्री जिनेन्द्र धर्म अमृत करि युक्त शास्त्र मपूर्ण । दोहाः -साह श्री हेमराज सुत, मातु हमीर द जाणि । कुल निगोत श्रावक धर्म, दशरथ ताबखाणि ।।१।। सवत् सतरामै सही, अष्टादश प्रधिकाय । फागुणतम एकादशी, पूरण भई सुभाय ।।२।।

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