Book Title: Jaina Granth Bhandars in Rajasthan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 293
________________ 276 ] Jaina Grantha Bhandars in Rajasthan. सबु को सारद सारद करइ, तिस कउ अ त न कोउ लहइ । जिवर मुखह जुणिगाय वारिण, सो सारद परणवहु परियार ।। २ ।। भ्रठ दल कमल सरोवरु वासु, कासमीरपुर लियो निकासु । हस चढी कर लेखरिण देइ, कवि सधार सरसइ भइ ।। ३ ।। सेत वस्त्र पदमवतीरण, करहं मलावरिण वाजहि वीए । भागम जारि देहु बहुमती, पुग्गु दुइ जे परणवइ सरसुती ॥ ४ ॥ + + + सरस कथा रसु उपजइ घरगउ, निसुरगह चरितु पजूसह तरणउ । सवतु चौदह हुई गए, ऊपर अधिक ग्यारह भए || मादव दिन पचइ सो सारु, स्वाति नक्षत्र सनीश्चर वारु ।। ११ । + + + मइसामी कउ कीयउ बखाण, तुम पजुन पायउ निरवाण । अगरवाल की मेरी जात, पुर मगरोए मुहि उतपाति ।। ६६४ ।। सुधरतु जरगरणी गुणवइ उर घरिउ, सा महाराज घरह अवतरिउ । एरछ नगर वसंते जानि, सुगिउ चरित मइ रचिउ पुरा ।। ६६५ ।। सावयलोग वसहि पुर मांहि, दह लक्षरण ते धर्म्म कराइ । दस रिस मानइ दुतिया मेउ, भावइ चितहं जिसरु देउ || ६६६ ।। एहु चरितु जो वांचह कोइ सो नर स्वर्ग देवता होइ । हलुवइ धर्म्म खपइ सो देव, मुकति वरगरिण मांगइ एम्म ।। ६६७ ।। जो कुणि सुराह मनह घरिभाउ, प्रसुभ कर्म ते दूरिहि जाइ । भौर बखाइ मासु कवर, तहि कहु तुसइ देव परदवतु ।। ६६८ ।। to लिखि जो लिखियावर साधु, सो सुर होइ महागुणराधु । जोर पहावद्द गुरण किउ निलउ, सो नर पावइ कंचन मलउ ।। ६६६ यहु चरितु पुन महारु, जो वरु पढइ सु नर महसारु । तहि परिक्ष्मण तुही फलदेइ, सपति पुत्र भवरु जसु होइ ।। ७०० ।। हर बुषिहरण न जाणो केम्बे, प्रक्षर मातह गुरणउ न भेउ । पंडित जगह नम कर जोडि, हीरा अधिक जरग लावहु खोडी ।। ७०१ ॥ ॥ इति परिदमरण चरित समाप्तः ।।

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