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साधना की पृष्ठभूमि
२७ बंधन है और जहां बंधन है वहां प्रवृत्ति है । आप किसी एक बात को पकड़ लें, दूसरी अपने आप आ जाएगी। हमारी कोई भी प्रवृत्ति, चाहे वह शरीर की हो, मन की हो या वाणी की हो, उससे बंधन होता है, कर्म बंधता है। जहां प्रवृत्ति होगी वहां बंधन होगा । जो भी व्यक्ति प्रवृत्ति करेगा, बंधेगा | ऐसा नहीं होता कि प्रवृत्ति तो है और बंधन नहीं है । यह बहुत बड़ी समस्या है कि जहां प्रवृत्ति है वहां बंधन निश्चित है । प्रवृत्ति होती रहेगी, बंधन होता रहेगा । फिर उस बंधन से मुक्ति कैसे होगी ? उससे छुटकारा कैसे मिलेगा ? कषाय चेतना है चिकनाहट
प्रवृत्ति के साथ कुछ आता है । क्रिया के साथ कुछ बाहर से आता है । जो आता है, उसे तो चले जाना चाहिए । जो आगन्तुक है, बाहर से आया है, उसे तो जाना ही होगा। किंतु उसे रोकने वाला भी है । हमने एक प्रवृत्ति की, बाहर से कुछ आया । पुद्गल आये और हमारे साथ जुड़ गये । प्रवृत्ति का कार्य समाप्त हो गया । किंतु भीतर में एक चिकनाहट ऐसी है कि वह आने वाली धूल को, आने वाले पुद्गलों को पकड़ लेती है। दीवार पर आप धूल फेंकें। धूल भी सुखी है और यदि दीवार चिकनी नहीं है तो धूल उस दीवार पर चिपकेगी नहीं। धूल जैसे ही डाली, दीवार का स्पर्श हुआ और वह नीचे गिर जाएगी, टिकेगी नही। किंतु यदि धूल गीली है तो थोड़ी टिक जाएगी | यदि दीवार चिकनी है तो वह धूल को पकड़ लेगी। धूल उस पर चिपक जाएगी ।
हमारी चेतना की एक परिणति के साथ चिकनाहट जुड़ी हुई है । वह चिकनाहट है - कषाय, राग और द्वेष । राग और द्वेष की चिकनाहट जुड़ी है । वह बाहर से जो कुछ आता है उसे पकड़ लेती है । उस चिकनाहट पर वह चिपक जाती है । दो बातें हो गईं । प्रवृत्ति का काम है खींचना, बाहर से कुछ लाना और कषाय का काम है उसे चिपकाकर रखना । बाहर से जो आता है वह है कर्म । कषाय उसे चिपकाकर रख लेता है । उसे जाने नहीं देता । जो चिपकता है वह है कर्म और जो चिपकाता है वह है कषाय । किन्तु कर्म ही नही है जो चिपकता है । एक कर्म और भी है, जो बाहर से आता है । बाहर से लाने के लिए के लिए जो प्रवृत्त होता है, वह भी कर्म है । उसकी संज्ञा है आस्रव । कर्मशास्त्र की परिभाषा में आस्रव को भाव कर्म कहा जाता
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