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पद्धति और उपलब्धि - १५७ भी कहा जाता है । स्वाभाविक तैजस शरीर सब प्राणियों में होता है । तपस्या से उपलब्ध होने वाला तैजस शरीर सबसे नहीं होता । वह तपस्या से उपलब्ध होता है । इसका तात्पर्य यह है कि तपस्या से तैजस शरीर की क्षमता बढ़ जाती है। स्वाभाविक तैजस शरीर स्थूल शरीर से बाहर नहीं निकलता । तपोजनित तैजस शरीर शरीर के बाहर निकल सकता है । उसमें अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है । उसके बाहर निकलने की प्रक्रिया का नाम तैजस समुद्घात है । जब वह किसी पर अनुग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद होता है । वह तपस्वी के दाएं कंधे से निकलता है | उसकी आकृति सौम्य होती है । वह लक्ष्य का हित-साधन कर (रोग आदि का उपशमन कर) फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है ।
जब वह किसी का निग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल होता है । वह तपस्वी के बाएं कंधे से निकलता है : उसकी आकृति रौद्र होती है । वह लक्ष्य का विनाश, दाह कर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है |
अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'शीत', और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'उष्ण' कहा जाता है । शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है ।
तेजोलेश्या अनुपयोग काल में संक्षिप्त और उपयोग काल में विपुल हो जाती है । विपुल अवस्था में वह सूर्यबिम्ब के समान दुर्द्धर्ष होती है । वह इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि मनुष्य उसे खाली आंखों से देख नहीं सकता । तेजोलेश्या का प्रयोग करने वाला अपनी तेजस्-शक्ति को बाहर निकालता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है । तेजोलेश्या का स्थान
तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता है । फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं-मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग । मन और शरीर के बीच सबसे बड़ा संबंध-सेतु मस्तिष्क है। उससे तैजस शक्ति (प्राणशक्ति या विद्युत् शक्ति) निकलकर शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करती है । नाभि
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