Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 223
________________ प्रयोग और परिणाम २०५ ३. एगानुपश्यी-धुताचार के द्वारा होने वाले प्रकंपनों या परिवर्तनों को देखने वाला | यह राग और द्वेष से मुक्त रहकर कर्म-शरीर को क्षीण करता है । पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी । ( ३/३५ ) संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष आत्मदर्शी हो जाता आत्मा है, फिर भी वह दुष्ट नहीं है। उसके दर्शन में बाधक तत्त्व दो हैं- राग और द्वेष । ये आत्मा पर कर्म का सघन आवरण डालते रहते हैं; इसलिए उसका दर्शन नहीं होता । राग-द्वेष के छिन्न हो जाने पर आत्मा निष्कर्म हो जाता है । निष्कर्म होते ही वह दुष्ट हो जाता है । निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ : किए जा सकते हैं - १. आत्मदर्शी, २. मोक्षदर्शी, ३. सर्वदर्शी, ४. अक्रियादर्शी । महावीर की साधना का मूल आधार है- अक्रिया । सत् वही होता है, जिसमें क्रिया होती है । आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है-चैतन्य का व्यापार । उससे भिन्न क्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती । अस्वाभाविक क्रिया का निरोध ही आत्मा की स्वाभाविक क्रिया के परिवर्तन का रहस्य है । स्वाभाविक क्रिया के क्षण में राग-द्वेष की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है । एस मरणा पमुच्चइ । ( ३/३६) आत्मदर्शी मृत्यु से मुक्त हो जाता है । से हु दिट्ठप मुणी । (३/३७) आत्मदर्शी ही पथद्रष्टा होता है । लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सयाजए कालकंखी परिव्वए । ( ३/३८) जो लोक में परम को देखता है वह विविक्त जीवन जीता है । वह उपशांत, सम्यक्, प्रवृत्त, ज्ञान आदि से सहित और सदा अप्रमत्त होकर जीवन के अंतिम क्षण तक जागरूक रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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