Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 224
________________ २०६ - जैन योग • अणोमदंसी णिसन्ने पावेहिं कम्मेहिं । (३/४८) परम को देखने वाला पुरुष पाप-कर्म का आदर नहीं करता । • उद्देसो पासगस्स णत्थि । (२/७३) द्रष्टा के लिए कोई उपदेश नहीं है । • संबाहा बहवो भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो । अज्ञानी और अद्रष्टा मनुष्य बार-बार आने वाली अनेक बाधाओं का पार नहीं पा सकता। बाधाओं को कैसे सहन करना चाहिए ? उनके सहन करने या न करने से क्या लाभ-अलाभ होता है ? -इन सारी स्थितियों को जानने वाला ही उनको समाहित कर सकता है। १४. आज्ञाविचय • संधेमाणे समुट्ठिए । (६/७१) धर्म का संधान करने वाले तथा वीतरागता के अभिमुख व्यक्ति को अरति अभिभूत नहीं कर पाती । साधक विषयों का त्याग कर संयम में रमण करता है । साधना-काल में प्रमाद, कषाय आदि समय-समय पर उभरते हैं और उसे विषयाभिमुख बना देते हैं । किंतु जागरूकता साधक धर्म की धारा को मूल स्रोत (आत्मदर्शन) से जोड़कर आत्मानुभव करता रहता है । १५. अपायविचय • अट्ठे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए । (१/१३) • अस्सि लोए परिव्वए । १/१४) जो मनुष्य विषय-वासना से पीड़ित है वह ज्ञान और दर्शन से दरिद्र है । वह सत्य को सरलता से समझ नहीं पाता, अतः अज्ञानी बना रहता है | वह इस लोक में व्यथा अनुभव करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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