Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 234
________________ २१६ - जैन योग • जीवियं दुष्पडिबूहणं । (२/१२२) जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता । • कामकामी खलु एयं पुरिसे । (२/१२३) यह पुरुष काम-भोगों की कामना करने वाला है । • ये सोयति जूरति तिप्पति पिड़डति परितप्पति । (२/१२४) कामी पुरुष शोक करता है, शरीर से सूख जाता है, आंसू बहाता है, पीड़ा और परिताप का अनुभव करता है । • गढिए अणुपरियट्टमाणे । (२/१२६) काम-भोगों में आसक्त पुरुष उत्तरोत्तर कामों के पीछे चक्कर लगा रहा चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का दूसरा आलंबन है-अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझना | काम के आसेवन से उसकी इच्छा शांत नहीं होती । कामी बार-बार उस काम के पीछे दौड़ता है । काम अकाम से शांत होता है | अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझने वाले व्यक्ति में काम के प्रति परवशता की अनुभूति जागृत होती है और वह एक दिन उसके पाश से मुक्त हो जाता है। • पंडिए पडिलेहाए । (२/१३१) पंडित पुरुष काम के विपाक को देखें । • से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी । (२/१३२) वह मतिमान् मनुष्य काम के यथार्थ स्वरूप को जानकर और त्याग कर लार को न चोट-वांत भोग का सेवन न करे | • मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावाताए । (२/१३३) साधक अपने-आप को कामभोगों के मध्य में न फंसाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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